(मुंशी प्रेमचंद की मूल रचना पर आधारित – सरल हिंदी में, भावपूर्ण पुनर्लेखन)
लेखक: सतेन्द्र
भूमिका:
गरीबी क्या होती है? भूख किसे कहते हैं? और इंसान जब बार-बार चोट खाकर भीतर से मर जाता है, तो उसके लिए नैतिकता, परंपरा, धर्म – सब शब्द खोखले लगने लगते हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी कफ़न इसी कटु यथार्थ का आइना है। यह कहानी समाज के उस सबसे अंधे कोने की परतें खोलती है, जिसे हम देखकर भी अनदेखा करते हैं।
कहानी शुरू होती है…
शीत ऋतु की एक ठंडी रात थी। गाँव के एक कोने में एक जर्जर झोंपड़ी खड़ी थी – मिट्टी से बनी, जिसकी दीवारें झड़ चुकी थीं और छत टपकती थी। उसी झोंपड़ी में रहते थे घीसू और उसका बेटा माधव।
घीसू – एक बूढ़ा आदमी, उम्र करीब साठ पार। झुकी हुई कमर, सूखी आँखें और घिसा हुआ मन। माधव – उसका जवान बेटा, करीब तीस साल का, पर चेहरा ऐसा मानो समय से पहले बूढ़ा हो गया हो। दोनों बाप-बेटे दिन भर इधर-उधर घूमते, कभी किसी से उधारी माँगते, कभी मज़दूरी का झूठा वादा करते। काम से भागते, भूख से डरते और ज़िंदगी से चिढ़ते।
उनकी झोंपड़ी में एक तीसरा सदस्य भी था – माधव की पत्नी बुधिया, जो आठ महीने की गर्भवती थी। उसके पेट में पल रहा बच्चा जैसे उनके जीवन की आखिरी उम्मीद था – पर वह उम्मीद भी टूटने वाली थी।
पीड़ा का आरंभ…
बुधिया को आज सुबह से ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी। वह झोंपड़ी के कोने में चुपचाप लेटी थी, कभी करवट बदलती, कभी कराहती। दर्द उसकी हड्डियों में उतर गया था, पर उसके पास न दवा थी, न दाई। घीसू और माधव उसके पास बैठे तक नहीं थे।
“बापू, कुछ करना पड़ेगा। औरत मर जाएगी!” माधव ने कहा।
“क्या करूँ बेटा? हमारे पास है ही क्या? किसी से माँगने जाओगे तो सब पहले का हिसाब माँगेंगे। इस वक़्त कौन देगा?”
“तो क्या यूँ ही मरने दें उसे?” माधव की आँखों में डर था, लेकिन विवशता ज़्यादा थी।
“मरने को तो सब मरते हैं, बेटा। हम कोई भगवान थोड़ी हैं जो सबको बचा लें।” – घीसू बोला और फिर चुप हो गया।
दोनों का मन विचलित था, लेकिन पैरों में हलचल नहीं थी। जैसे आदत सी हो गई थी तकलीफ़ों से भागने की।
तपती रात, ठंडी आत्मा
रात होते-होते बुधिया की हालत और बिगड़ गई। उसका शरीर काँप रहा था, उसकी चीखें अब धीमी पड़ रही थीं। बाहर शीतल हवा बह रही थी, पर झोंपड़ी के भीतर जैसे मौत के साए मंडरा रहे थे।
घीसू और माधव अब भी बाहर अलाव ताप रहे थे। भूख लगी थी, पर खाने को कुछ नहीं था।
“बुधिया मर जाएगी क्या?” माधव ने पूछा।
“जो ऊपरवाले की मर्ज़ी होगी, वही होगा। अब सोच के क्या होगा?”
फिर दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और कुछ क्षण चुप रहे।
“कहाँ से कुछ खाएँ, बापू?” माधव बोला।
“आज रामदीन के यहाँ बहुतेरे मेहमान आए हैं, वहाँ बचा-खुचा मिल सकता है। चलो माँग लेते हैं।”
और दोनों बाप-बेटे चल दिए – बीमार पत्नी को झोंपड़ी में तड़पता छोड़कर।
रात बीती… मौत आई…
जब दोनों लौटे, तो सब कुछ खत्म हो चुका था।
बुधिया अब इस दुनिया में नहीं थी।
उसका निःशब्द शरीर झोंपड़ी के एक कोने में पड़ा था। उसकी सूनी आँखें अब देख नहीं रहीं थीं, लेकिन उसकी पीड़ा उस झोंपड़ी की दीवारों पर लिखी थी।
माधव चुपचाप बैठ गया। आँसू न निकले, शोक न हुआ। उसकी आँखों में एक अजीब सा सूनापन था।
घीसू पास आया और बोला, “अब क्या करेंगे बेटा?”
“कफ़न लेना होगा, जलाना पड़ेगा…” – माधव की आवाज़ में कंपकंपी थी।
गाँव की मदद… एक और तमाशा
अगली सुबह, दोनों गाँव के चौपाल पर पहुँचे।
“हम गरीब हैं, हमारी बहू रात को चल बसी। अंतिम संस्कार करना है… पर कुछ मदद चाहिए…” – घीसू ने नम आँखों से कहा।
गाँव के लोगों का दिल पसीज गया। किसी ने दो रुपये दिए, किसी ने चार। किसी ने आटा, तो किसी ने लकड़ी दी। थोड़ी ही देर में लगभग बीस रुपये इकट्ठे हो गए।
किसी ने कहा, “जल्दी कफ़न ले लो। मरने वाली औरत थी, उसकी इज़्ज़त भी देखनी चाहिए।”
“हाँ, हाँ…” – माधव बोला, पर उसकी नज़र उन रुपयों पर थी। पेट में जैसे भूख का तूफ़ान उठ रहा था।
कफ़न की जगह शराब…
पैसे लेकर दोनों गाँव की ओर नहीं, बल्कि बाजार की ओर चल दिए।
“बेटा, इतना पैसा ज़िंदगी में कभी नहीं देखा। चल आज पेट भरते हैं।” – घीसू बोला।
माधव ने हामी भरी। “हाँ, आज जी भर के खाएँगे। मरने वाली को तो क्या चाहिए अब?”
बाजार में दोनों ने सबसे पहले शराब ली – देसी, तीखी और गर्म।
फिर ली तली हुई पूड़ियाँ, भजिए, अचार और मिठाई। चटखारे लेते हुए खाते रहे। पेट भरते गए, आत्मा खोते गए।
शराब का नशा बढ़ता गया। भावनाएँ, जिम्मेदारियाँ, मर्यादा – सब शराब में डूबती चली गईं।
अंतिम दृश्य – सबसे करुण चित्र
शाम ढल रही थी। गाँव के बाहर पीपल के नीचे दोनों बैठे थे – पेट भरा हुआ, सिर झुका हुआ।
“बेटा, बुधिया बहुत अच्छी बहू थी…” – घीसू ने कहा।
“हाँ बापू… सब सहती रही… न रोई, न कुछ कहा।” – माधव बोला और रो पड़ा, लेकिन वह रोना भी सच्चा था या शराब का असर – कौन जाने।
“आज अगर वह ज़िंदा होती तो कितना खुश होती हमें यूँ खाते देख कर।” – घीसू की आँखें डबडबा गईं।
“उसे कफ़न क्या करना, बापू? कफ़न तो जल जाता है। उस पैसे से हमने जो खाया, वो उसके लिए ही था…” – माधव ने कहा और दोनों हँसने लगे। वह हँसी इंसानियत पर एक व्यंग्य थी।
निष्कर्ष:
कफ़न एक ऐसी कहानी है जो हमें सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी गरीबी के उस चेहरे को दिखाती है, जहाँ इंसान की आत्मा मर जाती है, और वह सिर्फ पेट की आवाज़ सुनता है।
यह केवल एक कहानी नहीं है, यह एक आईना है – समाज, भूख, और इंसानियत के खोखलेपन का।
लेखक की टिप्पणी:
कहानी पढ़ने के बाद मन भारी हो जाता है। पर यही प्रेमचंद की लेखनी का जादू है। उन्होंने शब्दों में वो दर्द पिरोया है जो शायद आज भी कई लोगों की हकीकत है। हमने इस कहानी को सरल हिंदी में पेश किया ताकि हर पाठक इसे समझ सके और महसूस कर सके।