🌸 सती
लेखक: सतेन्द्र
(मुंशी प्रेमचंद की कहानी “सती” का सरल एवं विस्तारित रूपांतरण)
1. प्रस्तावना: एक गाँव की गूँज
गाँव की ठहरी-ठहरी सुबह थी, जैसे कोई रुका हुआ संगीत धीमी आवाज़ में बज रहा हो। दीवारों पर सुबह की धूप ने सुनहरा हॉल्का बुन रखा था। घर-द्वार, चौपाल और खेत—हर जगह पर सौम्यता और शांति थी।
लेकिन गाँव की इस शांति के बीच एक अजीब सी खनक थी। ख़ामोशियाँ कुछ कह रही थीं—एक छोटी-सी लड़की की कहानी हो रही थी, जिसने कुछ ऐसा किया कि गाँव का हर इंसान सोचने लगा।
इस कहानी का नाम था — “सती”।
2. परिचय: हमसे पहले की सती
गाँव में एक परिवार रहता था — दुरिया मुखिया का, बहुत पुराना और प्रतिष्ठित परिवार। मुखिया का नाम था सूर्यवंश सिंह, और उनकी उत्तम सौम्यता की कहानी दूर-दूर तक मशहूर थी। सूर्यवंश के तीन बच्चे थे—दो बेटे और एक बेटी, नाम सती।
सती पाँच साल की थी—लंबी, पतली, मासूम आंखों वाली, सुनहरे बाल वाली। उसका चेहरा जब मुस्कुराता, तो पूरा आंगन खिल उठता। उसे देवी की तरह पूजा जाता था, उसकी हर अदा में असाधारण साधुता नजर आती थी।
लेकिन यह साधुता, इतनी मासूम—कि एक छोटे मन की प्रार्थना की तरह लगती।
3. बँधे रिश्ते: माता-पिता और सती
सूर्यवंश सिंह हमेशा अपने बच्चों के साथ बहुत तटस्थ एवं स्नेही थे। लेकिन सती के साथ उनका एक अलग रिश्ता था। एक दिन, जब सूरज क्षितिज से ही मुस्कुराकर निकल रहा था, सूर्यवंश ने सती को गोद में उठा लिया और बोला:
“सती, तुम्हें देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे स्वर्ग से कोई परी आई हो।”
सती हँस पड़ी।
“पापा ने कितना प्यार कर दिया,” सती की आवाज़ में खुशी थी।
उस दिन से पिता–पुत्री का बंधन अटूट हो गया। सती भी अपनी इस प्यार भरी दुनिया में खुश थी।
4. स्कूल और सती के मन की दुनिया
सती पाँच वर्ष की थी लेकिन दिमाग़ से वह अपने उम्र वालों से कहीं आगे थी। उसके भीतर सोच और बातें इतनी नाजुक, इतनी कोमल थीं—जैसे बसंत की पहली बोयोली हो। स्कूल में वह सबसे शांत, विनम्र और नम्र बच्चों में से एक थी।
मास्टरजी उसे बुलाते, “सती, तुम्हारा घर का काम हो गया?”
वो झिझककर कहती, “हाँ मास्टरजी।”
उसका शांत मन, उसकी सहजता ने हर किसी का दिल जीत लिया था।
5. गाँव की पहली बात: “सती बड़ा हो रहे…”
समय तेज़ी से बीतता गया। सती दस वर्ष की हो चली थी। उसकी मासूमियत और सुंदरता ने अब गाँव के बच्चों, जवानों, जवानियों और बुज़ुर्गों को भी आकर्षित करना शुरू कर दिया था।
लेकिन उसके माँ-बाप की आँखों में अब चिंता थी—“कब उसे देख-सीख कर मंडप में भेजा जाए?”—यह चिंता उनके अंदर घर किए थी।
6. शादी की जल्दबाज़ी
इस उम्र में सती की शादी तय करने की बात चली। एक दिन सूर्यवंश ने तय कर लिया कि गाँव के संपन्न हलवाई अरुण ठाकुर के बेटे विजय से सती की शादी करवा देंगे। विजय दरअसल पढ़ा-लिखा, सभ्य और विनम्र था। लेकिन सती को वह पसंद ना आया।
सती उन दिनों क्या जानती? पिता की आँखों का प्यार, माँ की ममता—लेकिन एक दिन माँ ने उसे सीने से लगा कर दुलारते हुए कहा:
“बेटी, शादी की तैयारी शुरू होने वाली है। तुम बड़ी हुई हो, अब तुम्हें सास-ससुर के घर बसना है।”
सती चुप थी, उसकी आँखों में संकोच और बेचैनी थी। उस उम्र की मासूमियत में उसकी समझ अब पिघलने लगी थी।
7. विदा की शाम
शादी की तैयारियाँ जब शुरू हुईं—ससुराल-साज़- सामान, जāji-बाजी वालों का जमावड़ा—उस रात एक अजीब सा दिल-लहू खौल उठने वाला सन्नाटा था।
सती खिड़की से झाँक रही थी। चाँद को बातें कर रही थी—“चाँद मामा, कल मैं तुम्हें नहीं देख पाऊंगी… लेकिन मैं खुश हूँ, मैं अपने लाड़ले बाजू के साथ जा रही हूँ।”
उस रात सो नहीं पाई। सुबह की पहली किरण भी उसका यार बनकर नहीं आई।
8. विदा का दिन — दिल टूटा, आँखों से आँसू
शादी का दिन आया और विदाई की रस्म हुई। सती को पालकी में बैठाया गया। पिता ने उसे आँखों में भर-भरकर देखा, जैसे किसी मोती को धरती से बादलों की राह दिखा रहे हों।
“बेटी, खुश रहना। अपनी नई दुनिया में खूब ख़ुश रहना।”
सूर्यवंश की आँखों से नमी छलक रही थी।
सती ने हाथ जोड़कर प्रण लिया कि वो खुश रहेगी। लेकिन उसका दिल टूट रहा था।
9. ससुराल का पहला दिन: एक नई राह में
ससुराल पहुंची सती… वहाँ की दुनिया कुछ अटपटे, और कुछ चुहलबाज़ थीं। हँसी-ठिठोली, पर भीतर उसका मन तड़प रहा था।
विजय और उसके परिवार ने स्वागत किया। लेकिन सती अभी भी उस पहला आलिंगन नहीं भूल सकती थी—माँ-बाप का वो एहसास भूल नहीं पा रही थी।
दूसरा दिन आया—नया घर, नयी रसोई, नयी रीतियां—न बदली, न उसके दिल की तरंगें।
10. सती के मन की आवाज़: किशोरता की कोमलता
सती अब किशोर हो गई थी—15 वर्ष की। उसकी मासूमियत अब धीरे-धीरे तंद्रा चढ़ने लगी थी। उसके मन में पहली बार आई—“क्या यह रिवाज़ सभ्यता या ईश्वर की दी हुई है?”
विजय चाहता कि सती भी दूसरे लड़कियों की तरह बने—शाम तक चुप, दिनभर काम करती और शाम को अपने कमरे में बैठी रहती। लेकिन सती… सती की आँखों में अभी भी वो चमक थी जो कभी उसके पिता की दृष्टि को लुभाती थी।
11. समझौते का दरिया: समाज और आत्मा
वजह तो यह थी—एक ओर थी पहली लालसा—“खुद के सपने देखने की”—और दूसरी ओर थी “संप्रदायिक बंदिशें”—जहाँ पति-जमाई-सास-ससुर—सबकी निगाहें उस पर थीं।
उसने घर पर बैठकर समझा—“मैं सार्वजनिक रामायण में हँसूँगी? नृत्य सीखूँगी? अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाऊँगी? या घर की दीवारों में ही बंद रह जाऊं?”
वास्तविकता थी—अभी तक किसी ने यह मार्ग उसे नहीं बताया।
12. साधना और धर्म: एक झलक
एक दिन गाँव से कोई साधू आया। उसने गाँव के देवघर में कहा कि “सती” शब्द का अर्थ शुद्धता और साक्षात्कार होता है। लेकिन सती जो खुद को सती मान रही थी—वह तो बंद, संयमित, और रोक-टोक की सीमा में बंद कर दिय गई।
सती मन ही मन सोचने लगी: “मेरा वजूद क्या है इस संसार में? क्या धर्म सिर्फ खुद को समर्पित रखता है, या हमें खुलकर जीने की कला भी सिखाता है?”
13. विद्रोह: मुस्कान जिसकी गूंज होनी चाहिए थी
समय आ गया—गाँव की शरद पूर्णिमा थी। विजय ने तय किया कि रात में गाँव की बड़ी मस्ती होगी। वहाँ नाए युवकों को खेल, नाच, गीत और आत्माओं की छलाँग भरी जायगी।
विजय ने सती से कहा—“तुम भी आओ, नाचो, गाओ।”
सती ने चुपचाप कहा—“नहीं।”
पर उसके दिल में एक आग जमी थी—वह पहली बार विद्रोह कर रही थी।
“मैं अपना जीवन जीना चाहती हूँ,” उसके मन ने कहा।
“मुझसे पूछो, क्या मैं इससे खुश हूँ?”
बिना बोले उसने ही सबको जवाब दे दिया।
14. घर छोड़कर जाना
कुछ दिनों बाद, सती ने एक छोटे से झोले में कुछ कपड़े रखे। चुपचाप पति को न छोड़ देना—बल्कि सुबह जल्दी उठकर दफ्तर जाने का बहाना बना लिया।
राजमार्ग के सामने झोला थामकर खड़ी रहती थी। आँखों में आंसू थे, लेकिन कदम मजबूत थे।
“मैं अपने नाम का अर्थ सही करना चाहती हूँ — ‘सती’ यानी सत्य, न सिर्फ परंपरा।”
उसने गाँव की ओर देखा—जहाँ उसके पिता रहते हैं, माँ की गूंज है। वह कदम बढ़ाने लगी।
15. जंगल की राहें: अकेलापन और आत्मा की धार
पहली बार था कि सती किसी जंगल से निकलने वाली राह पर चल रही थी। पक्षियों की चहचहाहट, हवा की सरसराहट, और कपड़ों की आवाज़—सब कुछ अजीब ही सुन्दर था।
उसने आधे दिन चलते हुए भावना महसूस की—“यह जो शांति है, यह पहले नहीं जानती थी।”
दिनव्हा था—पर वह अपने मन को सुनने लगी—खुद को पहचानने लगी।
16. एक गाँव, नई पहचान
सहर होते ही दूसरे गाँव में पहुँची। कोई नहीं जानता था—न वो वहाँ की, न वो किसी की बहू थी। बस, सती थी—एक नई पहचान के साथ।
उसने वहाँ साधारण काम करना शुरू किया—साँझ को पाठशाला में पढ़ाना, सुबह मदरसे में बच्चों को अल्फाज़ सीखाती, और दोपहर को चाय की दुकान पर बैठकर पढ़ने-बोलने की कला सिखाती।
धीरे-धीरे गाँव वालों ने उसे अपना लिया।
17. सती की मुस्कान बनी पहचान
एक दिन गाँव के बच्चे बोले—“हमारी टीचर आएँगी पढ़ाने।”
और सिर्फ “टीचर” ही नहीं—उनमें छुपा सब कुछ निकल आया—स्वाभिमान, आदर, और सीखने की चाह।
सती की दिनचर्या थी—सुबह मस्जिद से नमाज़, फिर पाठशाला, फिर किर्तन या माला पढ़ना, और शाम को बच्चों की कहानियाँ सुनाना।
वह सीख रही थी—खुद की दुनिया बनाना, बुलंद होना, बिना किसी दबाव या बंदिश के।
18. पत्र पिता को: एक आत्मा का संदेश
सती ने सोचा—अब पिता को पत्र लिखना चाहिए।
उसने गाँव की डाकखाना में जाकर चिट्ठी लिखी:
पिताजी,
आप सामान्य, प्रतिष्ठित और सच्चे इंसान हैं—पर मैंने खुद को खोया हुआ महसूस किया। अब मैं खुद को पा रही हूँ। मुझे खेद है कि बिना बताये चली गई—लेकिन मैं लौट रही हूँ उसी कठिनता के साथ जो मैंने स्वीकार की थी।
मैं आपकी बेटी—पर अब आपकी आदर्श बेटी नहीं रह गई। मैं वह बनना चाहती हूँ जो विचारों में स्वतंत्र, कर्म में सशक्त और आत्मा में मुक्त हो।
आपका स्नेह हमेशा मेरे साथ है—मैं उसका ऋणी हूं।
आपकी सती,
सती
19. परिणाम: गाँव की बदलती सोच
कुछ समय बाद, पूरे गाँव में लेख खुल गया। “मुखिया की बेटी पानी में आई, गाँव से चली गई।”
कुछ लोग नाराज़ हुए—पर अधिकतर लोग सोचने लगे:
- “क्या लड़की सिर्फ घर-गृहस्थी के लिए बनी है?”
- “क्या हमें सपनों को नए मायने देने चाहिए?”
- “क्या हमारी सती—राजपथ छोड़कर स्वाधीनता की राह पर चली, तो क्या गलत कर रही?”
कुछ लोगों ने सोचा कि शायद हमें अपने सामाजिक नियमों पर पुनर्विचार करना चाहिए। सती ने खुद का नाम जिया था—लेकिन उसने कई नाम दिलों में लिख लिए।
20. अंत: एक नया आरंभ
सती लौट आई—लेकिन पहले से और मजबूत थी। उसने ढेरों सपने, शिक्षा, आत्म-ज्ञान अपने साथ लाई थी। गाँव का पूरा माहौल बदल गया—हर घर में सोचने की दहलीज़ पर नयी दरवाजे खुल गए।
सती कही—
“यदि समाज चाहता है कि हम सिर्फ परंपरा में बँधकर जीएं, तो समय आ गया है कि हम सोचें—‘सती’ क्या होनी चाहिए?”
सूर्यवंश सिंह को जब पत्र मिला—तो उनकी रूह रो पड़ी। नहीं—रडबडाकर। लेकिन उनकी आँखों में गर्व था।
21. समीक्षा और संदेश: “सती” का सार
मुंशी प्रेमचंद की कहानी “सती” यह सिखाती है कि जब आदर्शों का मतलब सिर्फ दिखावा बन जाता है, तो व्यक्ति—विशेषकर स्त्री—के भीतर एक तूफान उठता है।
ये story बताती है:
- आत्मा की आज़ादी बड़ी होती है
- परंपराएँ और आस्थाएँ सिर्फ ध्यान रखने से काम नहीं चलतीं—उनमें आत्मज्ञान शामिल होना चाहिए
- हर इंसान को खुद को पहचानने का अधिकार है—भले वह उम्र, परंपरा या संस्कृति के किस मोड़ पर खड़ा हो
22. समापन: लेखक सतेन्द्र की दृष्टि से
जब मैंने “सती” पढ़ी, तो मेरा मन कांप उठा। गाँव, शादी, समाज—वह सब तो सामान्य था। लेकिन जो वास्तविक दर्द और संघर्ष, आत्मा की आवाज उस छोटी लड़की की ओर इंगित कर रही थी—वो कहीं प्रभाव छोड़ गया।
इस रूपांतरण में मैंने कोशिश की है—सादगी बनी रहे, भावों की गहराई बढ़े, और हर शब्द मानव-सुलभ व मननीय हो।
लेखक: सतेन्द्र के तौर पर मेरा श्रेय बस इस इच्छा के लिए है कि यह कहानी आपकी आत्मा तक पहुँचे, और कहीं न कहीं आपको भी आत्मा की राह पर सोचने पर मजबूर करे।