लेखक: सतेंद्र
प्रस्तावना
क्लासिक साहित्य की खूबसूरती यही होती है कि वह समय और पीढ़ियों की सीमाओं को पार कर जाता है। मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ ऐसी ही एक कहानी है—सीधी, सच्ची, लेकिन दिल में उतर जाने वाली। आज जब दुनिया मोबाइल, ऑनलाइन शॉपिंग और डिजिटल रिश्तों में उलझी हुई है, तब भी ‘हामिद’ जैसा बच्चा कहीं न कहीं मौजूद है, जो मासूमियत और बलिदान की मिसाल बना हुआ है। यह कहानी उसी मूल भावना को समर्पित एक पुनर्कथा है, जो प्रेमचंद की आत्मा को बनाए रखते हुए आज के संदर्भों में उसे नए रंग देती है।
कहानी: ईदगाह – एक नई सुबह
ईद की सुबह थी। सारा मोहल्ला जैसे जागते ही खिल उठा था। बच्चे नए कपड़े पहनकर गलियों में उछल-कूद कर रहे थे। मोबाइल कैमरे चमक रहे थे, इंस्टाग्राम स्टोरीज़ बन रही थीं, और व्हाट्सऐप पर ‘ईद मुबारक’ के संदेशों की बारिश हो रही थी।
लेकिन उसी मोहल्ले के एक कोने में एक टूटी-फूटी सी झोपड़ी थी, जहाँ हामिद अपनी दादी अमीना के साथ रहता था। पाँच साल का हामिद, पतला-दुबला, आँखों में जिज्ञासा की चमक और चेहरे पर भोलापन लिए हुए। उसके अब्बू दो साल पहले कोविड में चले गए थे, अम्मी को गांव की सरकारी अस्पताल ने लापरवाही से खो दिया। अब उसकी दुनिया बस दादी अमीना थी, जो खुद बीमार रहने लगी थीं।
सुबह की नमाज़ के लिए गाँव की मस्जिद में भीड़ जुट रही थी। हामिद ने भी अपने मैले लेकिन साफ-सुथरे कुर्ते को पहनकर खुद को तैयार किया। दादी ने पुरानी सलमा की बटन वाली टोपी उसकी जेब में रख दी, और झोली उठा कर बोली, “जाओ बेटा, अल्लाह से दुआ करना कि तुम्हारी दादी जल्दी ठीक हो जाए।”
“और हां,” अमीना ने जेब में दस रुपये का सिक्का डालते हुए कहा, “कुछ खा लेना मेले में।”
हामिद मुस्कराया। उसे मालूम था कि ये दस रुपये दादी ने दवाई के लिए रखे थे।
मेला और बच्चों की चकाचौंध
गाँव के बाहर मैदान में मेला लगा था। झूले, चाट के ठेले, खिलौनों की दुकानें, और स्पीकर पर बजते बॉलीवुड रीमिक्स। हामिद के दोस्त—सलीम, राशिद और मुस्तफा, सब नए कपड़े पहने अपनी-अपनी जेबों में पैसे भर के आए थे। किसी ने गुब्बारे खरीदे, किसी ने प्लास्टिक की पिस्तौल, और किसी ने मोबाइल कवर।
“हामिद, तू क्या ले रहा है?” सलीम ने पूछा।
“अभी देखता हूँ,” हामिद ने जवाब दिया।
भीतर ही भीतर वह सोच रहा था—दस रुपये में क्या आएगा? गुब्बारे भी अब पाँच के आते हैं। चाट खाऊँ तो खिलौने नहीं मिलेंगे, खिलौने लूँ तो झूला नहीं झूल पाऊँगा।
इसी उधेड़बुन में वो मेला घुमता रहा। तभी उसकी नज़र एक बूढ़े लोहार की दुकान पर पड़ी। लोहे के छोटे-बड़े औज़ार रखे थे—केंचियाँ, पेचकस, चिमटे।
हामिद ठिठक गया। उसे याद आया, कल रात दादी ने रोटियाँ बनाते हुए हाथ जला लिया था, जब लकड़ी के चिमटे की पकड़ टूट गई थी।
वह लोहार की तरफ बढ़ा, “बाबा, ये छोटा चिमटा कितने का है?”
“दस रुपये का बेटा,” लोहार ने मुस्कराते हुए कहा।
हामिद ने झट से अपनी जेब से सिक्का निकाला और चिमटा खरीद लिया।
बच्चों की हँसी और हामिद की मुस्कान
जब हामिद दोस्तों के पास पहुँचा और सबने उसका चिमटा देखा तो ठहाका मार कर हँस पड़े।
“तू मेला घूमने आया है या दादी का रसोइया बनने?” राशिद बोला।
“इतने में तो गोली मिल जाती!” सलीम चिढ़ा।
“हम तो झूले झूलेंगे और तू चिमटे से रोटियाँ सेंकेगा,” मुस्तफा हँसा।
हामिद चुपचाप मुस्कराता रहा। उसकी नज़रों में कोई अपराध नहीं था, सिर्फ एक चमक थी—अपनों के लिए कुछ करने की।
वापसी और एक अनमोल तोहफा
दोपहर की धूप में जब सारे बच्चे थककर घर लौटे तो हामिद भी अपने चिमटे को झोली में डालकर घर लौटा। अमीना उसे देखकर मुस्कराई, “क्या लाए मेले से?”
हामिद ने चिमटा निकाला और दादी के सामने रखते हुए कहा, “अब आपको हाथ नहीं जलाना पड़ेगा दादी।”
अमीना ने चिमटा देखा, आँखें भर आईं। “तू तो मेरा फरिश्ता है बेटा। सारी दुनिया के खिलौने एक तरफ, ये चिमटा एक तरफ।”
समाप्ति: चिमटे की कीमत
हामिद की कहानी सिर्फ एक बच्चे की नहीं, उन लाखों मासूमों की है जो छोटी उम्र में ज़िम्मेदारियों की चक्की में पिसते हैं, फिर भी चेहरे पर मुस्कान लिए चलते रहते हैं।
जहाँ दूसरे बच्चे अपने लिए जीते हैं, वहाँ हामिद जैसे बच्चे दूसरों की ख़ुशी में अपनी ईद ढूंढ़ लेते हैं।
और यही तो है प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का असली संदेश—त्याग, ममता और मासूमियत का अद्भुत संगम।
इस बदलते युग में शायद ज़रूरत है हमें एक बार फिर हामिद बनने की।
लेखक परिचय:
सतेंद्र एक संवेदनशील लेखक हैं जो मानवीय भावनाओं को सरल भाषा में गहराई से प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक यथार्थ, साहित्यिक पुनर्कथन और संवेदनशील विषयों को आधुनिक दृष्टिकोण से लिखना उनकी विशेषता है।