लेखक: सतेन्द्र
(मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी का सरल, मानवीय और विस्तार रूपांतरण)
प्रस्तावना
पूस की रात, यानी वह रात जब ठंड अपने चरम पर होती है। जब ठंडी हवाएं हड्डियों में समा जाती हैं, खेतों में पाला गिरता है और गरीब किसानों के घरों में अलाव की आँच भी अधूरी पड़ जाती है। मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी भारत के उस गांव की तस्वीर खींचती है, जहाँ मेहनत ही जीवन का आधार है, और गरीबी हर साँस के साथ महसूस होती है।
यह कहानी एक गरीब किसान हल्कू और उसकी पत्नी मुन्नी की है। लेकिन ये सिर्फ उनकी कहानी नहीं है — ये लाखों किसानों की कहानी है जो हर पूस की रात में अपने स्वाभिमान और पेट के बीच झूलते हैं।
पहला दृश्य – खेत और घर की कशमकश
सर्दियों के दिन थे। खेत में फसल खड़ी थी, लेकिन चोरों और जानवरों से उसकी रखवाली भी जरूरी थी। हल्कू दिनभर खेत में हल चलाता और रात को ठंड से कांपता हुआ उसी खेत की रखवाली करता।
आज भी वह खेत से लौटा, तो उसकी हालत देखने लायक थी — पांव में दरारें, शरीर पर फटे पुराने कपड़े, और चेहरे पर थकान की लकीरें।
घर पहुँचा तो उसकी पत्नी मुन्नी ने पूछा, “कुछ लाए बाजार से?”
हल्कू ने सिर झुका लिया, “नहीं मुन्नी… जो तीन रुपये थे, वो मैंने जमींदार को दे दिए। वो बार-बार तगादा कर रहा था, अगर नहीं देता तो इस बार खेत छीन लेता।”
मुन्नी ने गुस्से और दुख में कहा, “तो अब हम क्या ओढ़ेंगे? ये रातें तो जान ले लेंगी। एक तो खेत की रखवाली करनी है और ऊपर से कपड़े भी नहीं। अच्छा होता जो खेत ही चला जाता।”
हल्कू चुप रहा।
दूसरा दृश्य – खेत की रातें और ठंडी हवाएं
रात को हल्कू, एक पतली-सी चादर ओढ़े, खेत की रखवाली के लिए चला गया। चारों तरफ घना कोहरा, झाड़ियाँ भी सफेद लग रही थीं। उसके साथ केवल उसका कुत्ता झबरा था, जो हमेशा उसकी साया बनकर रहता था।
हल्कू ने खेत के किनारे एक पेड़ के नीचे खुद के लिए एक गड्ढा सा खोदा और झबरे को पास बिठाकर ठंडी ज़मीन पर सिकुड़कर बैठ गया। उसका शरीर काँप रहा था। हर साँस जैसे धुएं में बदल जाती थी।
उसे नींद नहीं आ रही थी, ठंड हड्डियों तक चढ़ चुकी थी। उसने झबरे को गले लगाया, लेकिन आराम नहीं मिला।
उसकी आंखें पथरा गईं थीं, लेकिन सपनों में एक आग जल रही थी।
तीसरा दृश्य – सपनों का संसार
हल्कू को सपने में दिखा कि वह अपनी पत्नी के साथ अलाव के पास बैठा है, गर्म-गर्म रोटियाँ खा रहा है, झबरा उसके पैरों के पास पड़ा है और उसकी झोंपड़ी में अन्न से भरी बोरियाँ रखी हैं।
लेकिन अचानक उसकी नींद खुली। कुछ खड़खड़ाहट की आवाज आई।
उसने देखा, झबरा भौंक रहा है, और कुछ जानवर खेत में घुसे हुए हैं। फसल को खा रहे हैं।
वह उठा, लेकिन शरीर जवाब दे चुका था।
वह कुछ पल खड़ा रहा, फिर वहीं बैठ गया।
उसने खुद से कहा: “खेत खा जाएं तो खा जाएं… मैं अब नहीं जा सकता। मैं भी इंसान हूँ…”
चौथा दृश्य – सुबह की सच्चाई
सुबह हुई। सूरज की पहली किरण हल्कू के चेहरे पर पड़ी। मुन्नी भागती हुई खेत पर पहुँची, और देखा — आधी फसल बर्बाद हो चुकी थी।
मुन्नी ने चिल्लाकर पूछा: “तू क्या कर रहा था रात को? सब कुछ खा गए जानवर!”
हल्कू ने शांति से कहा: “सो गया था… बहुत ठंड थी।”
मुन्नी रोने लगी। लेकिन हल्कू के चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था। वो खेत की ओर देखकर मुस्कुराया।
“कम से कम ये रात तो चैन की नींद सोया… बरसों बाद ऐसी नींद मिली है…”
निष्कर्ष – एक किसान की पुकार
पूस की रात केवल एक ठंडी रात नहीं है, यह उस इंसान की आवाज है जो ताजमहल बनाता है, लेकिन खुद झोंपड़ी में रहता है। जो दूसरों की थाली भरता है, लेकिन अपनी रोटियों के लिए लड़ता है। हल्कू हमसे सवाल करता है:
“क्या इंसान की गरिमा, उसकी नींद, उसकी थकान से भी ज्यादा ज़रूरी है वो खेत, जो कभी भी उसका नहीं हो पाता?”
लेखक का संदेश (सतेन्द्र द्वारा)
जब मैंने ‘पूस की रात’ पढ़ी, तो मेरा दिल कांप गया। ये कहानी नहीं, एक अनुभव है। यह एक आईना है जिसमें समाज की असली तस्वीर दिखती है।
मैंने इस कहानी को इस सरल भाषा में इसलिए लिखा ताकि हर कोई इसे समझ सके, महसूस कर सके और सोच सके कि आज भी हजारों ‘हल्कू’ इस देश में हर पूस की रात को जी रहे हैं।
उपसंहार
‘पूस की रात’ हमें सिखाती है कि इंसान की सीमाएं भी होती हैं। भूख, थकान और ठंड से लड़ते हुए भी अगर कोई मुस्कुरा सके, तो वह किसान ही हो सकता है। इस कहानी को पढ़कर अगर आपका दिल कांप गया, तो समझिए कि अब भी इंसानियत जिंदा है।