लेखक: सतेन्द्र
कहानी का नाम: बड़े भाई साहब – एक नया चित्रण
बचपन के दिनों की वो छोटी-छोटी बातें जो हमें जीवनभर गुदगुदाती हैं, रुलाती हैं और सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि बचपन कितनी अनमोल चीज है। ऐसी ही एक कहानी है मेरे बड़े भाई साहब की, जिनका जीवन मेरे लिए ज्ञान, अनुशासन और संघर्ष का प्रतीक रहा, लेकिन एक ऐसा प्रतीक जो कई बार खुद ही अपनी ही दीवारों से टकराता रहा।
मैं और मेरे बड़े भाई साहब एक कस्बाई शहर के पुराने से स्कूल में पढ़ा करते थे। स्कूल की इमारत इतनी पुरानी थी कि लगता था ईंटें भी थक गई हैं और किसी दिन अपने आप गिर पड़ेंगी। लेकिन भाई साहब का अनुशासन – जैसे ब्रिटिशकालीन सख्ती – कभी ढीली नहीं पड़ी।
भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन दो ही कक्षा आगे थे। वो खुद कहते थे – “तुम्हें लगता है मैं फेल हो गया? नहीं। मैं तो हर कक्षा को गहराई से समझता हूँ। जो काम एक साल में नहीं समझा जा सके, उसे दो साल में पकड़ना ही समझदारी है।”
उनका यह तर्क मुझे तब तो समझ में नहीं आता था, पर उनकी गंभीरता और आवाज की ठसक से लगता था – जरूर इसमें कोई गूढ़ तत्त्व छिपा है।
अनुशासन का पहरा
हमारा कमरा एक ही था। एक पुराना लकड़ी का पलंग, एक तंग-सा स्टडी टेबल और दीवार पर टंगा समय का पुराना झंडा – कैलेंडर, जो हर महीने के साथ हमारी उम्मीदें भी बदलता था। भाई साहब सुबह चार बजे उठ जाते थे। उनका पहला वाक्य – “उठो, सूरज चढ़ आया, और तुम अब भी सो रहे हो?”
मेरे उठने से पहले ही वो स्नान कर, भगवान की मूर्ति के आगे दीया जलाकर, ‘संध्या वंदन’ कर चुके होते थे। मैं आँखें मलता तो वो मुझे घूरते हुए कहते, “सपनों में कौन-सा पाठ याद कर लिया?”
पढ़ाई का मैदान
भाई साहब की किताबें हमेशा साफ-सुथरी रहती थीं। हर किताब पर गुलाबी कवर चढ़ा होता था और किनारों पर मोटा लेबल चिपका होता था – “मोहनलाल शर्मा, कक्षा – सातवीं”।
मेरी किताबें? उन पर रंग-बिरंगे चित्र बने होते, किनारों से मुड़ी हुई और पीछे के पन्नों पर क्रिकेट स्कोर लिखे होते। मैं पढ़ता भी था, लेकिन दिल से नहीं। भाई साहब कहते, “तुम्हारी उम्र में मैं भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध रट चुका था।”
मैं सोचता – ये भारतेंदु कौन है भाई? हमें तो केवल पास होना है। लेकिन उनके सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती।
खेल-कूद की आज़ादी और बंदिशें
स्कूल के मैदान में क्रिकेट चल रहा था। मैं बैटिंग कर रहा था, और क्या शानदार शॉट मारा था मैंने! चारों तरफ तालियाँ बजने लगीं। अचानक पीछे से एक गहरी आवाज आई – “वाह! अब बल्ले से परीक्षा पास करोगे?”
मुड़ कर देखा, भाई साहब खड़े थे, दोनों हाथ पीछे बाँधे, चेहरे पर वही जाना-पहचाना तिरस्कार।
“अभी परीक्षा में एक महीना है, और तुम खेल रहे हो?”
“भाई साहब, बस आधा घंटा ही खेला था…”
“एक आधा घंटा रोज़ जोड़ो तो पंद्रह घंटे बर्बाद कर चुके हो! इन पंद्रह घंटों में तुम ‘पंचतंत्र’ की एक पूरी कहानी याद कर सकते थे।”
मैं सिर झुकाए सुनता रहा। उन्होंने बल्ला लिया, और एक ओर रख दिया। फिर वही मशहूर डायलॉग – “तुम्हारा जीवन इस तरह नहीं बन सकता।”
गुरु और शिष्य का रिश्ता
कभी-कभी जब माँ-पापा गांव से आते तो भाई साहब को कहते – “जरा छोटे को समझाओ, कुछ बिगड़ न जाए।” भाई साहब अपना गला साफ करते, मुझे पास बुलाते, और फिर शुरू होता उनका प्रवचन – “बुद्धिमान वही है जो दूसरों की गलतियों से सीखता है। तुम मेरे उदाहरण से सीखो, मेरे रास्ते से नहीं जाओ।”
वो खुद को बलि का बकरा घोषित करते हुए कहते – “मैंने समय गंवाया है, अब मैं उसे पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन तुम अभी भी वक्त के साथ हो। उसका मान रखो।”
मैं सोचता, “अगर समय से इतना प्यार था तो हर साल फेल क्यों हो रहे हो?” लेकिन ये बात जुबान पर नहीं लाता।
परतें खुलती हैं
एक बार परीक्षा के बाद नतीजे आए। मैं पास हो गया, और भाई साहब… फिर से दोहराव।
मैं डरा-डरा उनके पास गया, मन में डर – कहीं गुस्से में मेरी धुनाई न कर दें। लेकिन उस दिन उनका चेहरा अलग था। वो चुपचाप बैठे थे, किताब खोले बिना।
मैंने धीमे से पूछा – “भाई साहब, आप ठीक हैं?”
वो मुस्कराए – पहली बार उनके चेहरे पर ऐसी मुस्कान देखी थी – हल्की, थकी हुई, लेकिन सच्ची। बोले – “तुम पास हो गए, मुझे खुशी है।”
मैंने और हिम्मत की – “भाई साहब, पढ़ाई सिर्फ किताबों से ही नहीं होती शायद…”
वो चुप रहे, फिर बोले – “शायद तुम ठीक कहते हो। मैंने हमेशा किताबों को ज़िंदगी समझ लिया, लेकिन ज़िंदगी और किताब में फर्क होता है।”
बदलता रिश्ता
उस दिन के बाद भाई साहब बदल गए। पहले की तरह डांटते नहीं थे, लेकिन जब मैं पढ़ रहा होता तो पास आकर बैठ जाते। कभी पूछते – “समझ में आया?”
मैं कहता – “हाँ, ये हिस्सा बहुत अच्छा है।”
वो कहते – “चलो, मुझे भी सुनाओ।”
अब वो गुरु नहीं, एक साथी बन गए थे। हम साथ में पढ़ते, साथ में हँसते, और कभी-कभी क्रिकेट भी खेल लेते।
वर्षों बाद
समय बीत गया। मैं कॉलेज आ गया, और भाई साहब एक प्राथमिक स्कूल में अध्यापक बन गए। जब कभी घर जाता तो सबसे पहले उनका हालचाल लेता। एक बार उन्होंने मुझे अपनी क्लास के बच्चों की कॉपियाँ दिखाईं।
“देखो, ये छोटा बच्चा रामू है, गणित में बहुत तेज है… और ये राधा, कविता बहुत सुंदर लिखती है।”
उनकी आँखों में वही चमक थी, जो कभी भारतेंदु के निबंध में दिखती थी।
मैं मुस्कराया – “भाई साहब, आप तो अब सच्चे शिक्षक बन गए।”
वो बोले – “तुमसे ही सीखा है। जीवन से सीखना किताबों से बड़ा पाठ होता है।”
निष्कर्ष
आज जब मैं खुद एक शिक्षक हूँ, तो हर बार किसी छात्र को डाँटने से पहले भाई साहब की मुस्कराहट याद आ जाती है। वो जो खुद की गलतियों को स्वीकार कर एक मित्र बने, एक सच्चे मार्गदर्शक बने।
बड़े भाई साहब मेरे लिए आज भी एक कहानी नहीं, एक सीख हैं – कि सच्चा ज्ञान केवल किताबों में नहीं, अनुभव और अपनत्व में छिपा होता है।