📘 मुक्ति‑मार्ग
लेखक: सतेन्द्र
(मुंशी प्रेमचंद की सामाजिक और भावनात्मक शैली से प्रेरित एक मौलिक कथा)
🧩 कहानी की रूपरेखा (संक्षेप में)
स्थान: उत्तर प्रदेश का एक छोटा कस्बा “धनीपुर”
समय: भारत की आज़ादी के कुछ ही साल बाद (1950 के दशक की पृष्ठभूमि)
मुख्य पात्र:
- रामचरन: 55 वर्षीय ब्राह्मण, गाँव का पुराना शिक्षक, पर अब उपेक्षित
- गुड्डन: रामचरन का पोता, पढ़ने में तेज, स्वभाव से संवेदनशील
- रज्जो: रामचरन की बहू, बेटे की मौत के बाद ताने झेलती औरत
- जमींदार महेश सिंह: गांव का दबंग, परंतु भीतर से कमजोर
- द्रौपदी: महेश सिंह की बेटी, जो पितृसत्ता से मुक्त होना चाहती है
थीम:
यह कहानी केवल गरीबी की नहीं है, यह सम्मान, समाज, नारी-मुक्ति, और आत्मबलिदान की कहानी है। कहानी का केंद्र है — “मुक्ति”। कोई गरीबी से मुक्ति चाहता है, कोई रिश्तों से, कोई पाप से और कोई अपने अंदर की घुटन से।
📖 अध्याय 1: “गुज़र-बसर और गुड्डन की आँखें”
धनीपुर गाँव की सुबहें एक जैसे ही होती थीं — सूरज खेतों पर झांकता, बैलों की घंटियाँ बजतीं, और कुएँ पर स्त्रियाँ अपनी बातों में आधा गाँव उंडेल देतीं।
लेकिन आज की सुबह कुछ अलग थी। रामचरन जैसे हर दिन की तरह अपनी लाठी टेकते हुए बाहर निकले, तो उसकी आँखें किसी और दिशा में थीं। उसकी झुकी कमर, रूखे बाल और टूटे चश्मे के पीछे एक ऐसी आग थी जिसे गाँव वाले कब का बुझा हुआ मान बैठे थे।
रामचरन के लिए ये गाँव अब घर नहीं रहा था।
जिस स्कूल को उसने अपने हाथों से बनाया, वहाँ अब उसे घुसने तक की इजाज़त नहीं थी। “बूढ़ा हो गया है”, “समझ में कुछ नहीं आता”, ऐसा कहकर नए मास्टर ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
“गुरुजी, आपने उस ज़माने में भी हमें पढ़ाया जब लोग अंग्रेजी नाम सुनकर भागते थे…” — गाँव के कुछ बूढ़े लोग कभी-कभार उसकी तारीफ़ कर देते, लेकिन अब वो भी रोज़ की रोटी में उलझे थे।
रामचरन का एक ही सहारा था — उसका पोता गुड्डन।
गुड्डन, दस साल का मासूम बालक था। अपने उम्र से ज्यादा गंभीर। जब वह अपनी किताबें उठाकर कहता, “दादा, आज ये कविता सुनो ना…”
तो रामचरन के चेहरे पर एक चमक आ जाती।
उनके घर की हालत बद से बदतर हो चुकी थी। रामचरन का बेटा — रज्जो का पति — आठ साल पहले शहर में मज़दूरी करते हुए एक दुर्घटना में चल बसा था। उसके बाद रज्जो और गुड्डन रामचरन के साथ रहने लगे।
रज्जो को गाँव की औरतें “मनहूस” कहती थीं। लेकिन वह हर दिन सूरज से पहले उठती, सारे खेतों में मज़दूरी करती, और शाम को आकर चूल्हा जलाती।
उसी चूल्हे के सामने बैठकर रामचरन अपनी टूटी चाय की प्याली में पानी भरकर कहता —
“बहू, अब गुड्डन को शहर भेजना होगा। गाँव में इसके सपने मुरझा जाएँगे।”
रज्जो चुप रह जाती थी। उसका मन मानता था, पर जेबें कहती थीं — “खाली है।”
📖 अध्याय 2: “महेश सिंह और द्रौपदी”
धनीपुर का एक और कोना था — जमींदार महेश सिंह का हवेलीनुमा घर, जिसके बड़े फाटक पर हर कोई सलाम करता था। लेकिन उस फाटक के अंदर भी एक कैदखाना था — भावनाओं का।
महेश सिंह की इकलौती बेटी द्रौपदी, नाम के विपरीत, कोई दांव पर लगी स्त्री नहीं थी। वह तेज़ थी, पढ़ी-लिखी और सबसे बड़ी बात — सोचती थी।
उसने बचपन से देखा था कि कैसे उसके पिता और दूसरे पुरुष समाज को चलाते हैं। वह पूछती थी —
“पिताजी, अगर औरतें देवी हैं, तो उन्हें पढ़ने से क्यों रोका जाता है?”
महेश सिंह हँसते हुए कहते —
“बेटी, औरत को जितना पढ़ाओगी, वो उतना जवाब देगी। समाज नहीं बचेगा।”
लेकिन द्रौपदी चुप नहीं रहती थी। उसने हाईस्कूल पास किया और अब कॉलेज जाना चाहती थी। लेकिन गाँव की मर्यादा को लेकर महेश सिंह को डर था।
उसी गाँव में, एक दिन जब द्रौपदी गाँव के स्कूल की छत पर किताब पढ़ रही थी, तो उसकी नजर नीचे बैठे गुड्डन और रामचरन पर पड़ी।
रामचरन गुड्डन को गणित समझा रहे थे —
“एक रुपया कमाया, दो खर्च किए — आदमी कंगाल। लेकिन अगर एक बचाया, तो राजा। समझे?”
द्रौपदी मुस्कुरा दी। उस दिन पहली बार उसे समझ आया कि ज्ञान हवेलियों में ही नहीं रहता।
📖 अध्याय 3: “सत्ता, शिक्षा और संघर्ष”
गाँव में एक नई हवा चल पड़ी थी। द्रौपदी ने गाँव की लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया। रामचरन को बुलाकर कहा —
“गुरुजी, आपके अनुभव की हमें ज़रूरत है। हम एक ‘नारी पाठशाला’ शुरू कर रहे हैं।”
रामचरन की आँखें भर आईं।
गाँव वाले हक्के-बक्के रह गए। औरतें किताबें पकड़ेंगी? और वो भी ज़मींदार की बेटी के साथ? बात पंचायत तक पहुँची।
महेश सिंह आग-बबूला हो गया। उसने द्रौपदी को घर में बंद कर दिया।
उधर रामचरन, गुड्डन और रज्जो मिलकर पाठशाला को आगे बढ़ाते रहे। बच्चियाँ अब अपने नाम लिखना सीख रही थीं। गाँव का एक कोना जाग रहा था।
इसी बीच, पंचायत ने रामचरन को “गाँवद्रोही” कहकर सामाजिक बहिष्कार कर दिया। राशन बंद, मज़दूरी बंद, पानी बंद।
रज्जो कई रातें बिना खाए सोई, गुड्डन की आँखों के नीचे गड्ढे पड़ गए। लेकिन रामचरन की आवाज़ अब और मजबूत हो गई।
“अगर भूखे रहकर भी ज्ञान बाँट सका, तो समझ लेना कि जीवन सफल हुआ।”
📖 अध्याय 4: “मुक्ति का रास्ता”
एक रात, जब बिजली नहीं थी और हवा गरम थी, द्रौपदी ने अपने कमरे की खिड़की से देखा — पाठशाला में रज्जो लालटेन जलाकर बच्चियों को पढ़ा रही थी। उसके आँसू रुक नहीं पाए।
अगली सुबह वह चुपचाप घर से निकलकर पाठशाला पहुँच गई।
महेश सिंह पीछे-पीछे आए। भीड़ जमा हो गई।
रामचरन खड़ा हुआ और पहली बार खुलकर बोला —
“मुक्ति केवल मौत से नहीं मिलती, साहब। मुक्ति मिलती है जब हम अपने डर से लड़ें। आप अपनी बेटी को बंद करके क्या पाना चाहते हैं? वह रोशनी है, रोशनी को कैद नहीं किया जा सकता।”
भीड़ चुप थी।
महेश सिंह पहली बार हारा महसूस कर रहा था।
उसी शाम, पाठशाला में सबके सामने उसने घोषणा की —
“इस गाँव की हर लड़की अब पढ़ेगी, और मेरी बेटी सबसे पहले।”
गाँव के इतिहास में पहली बार लोगों ने जमींदार के सामने ताली बजाई।
रज्जो ने रामचरन के पैर छुए।
रामचरन ने कहा —
“अब मेरा काम पूरा हुआ, बहू। अब मैं मुक्ति का असली अर्थ जान गया हूँ।”
✍️ लेखक टिप्पणी (सतेन्द्र)
“मुक्ति-मार्ग” सिर्फ एक कहानी नहीं है। यह एक विचार है — कि समाज तब बदलता है जब बूढ़े शिक्षक, ताने झेलती बहुएँ, सवाल पूछती बेटियाँ और नंगे पाँव चलने वाले बच्चे मिलकर एक सपना देखें।
यह कहानी मैंने मुंशी प्रेमचंद की “कफ़न”, “पूस की रात”, “सद्गति” जैसी कालजयी रचनाओं से प्रेरित होकर रची है — लेकिन मेरी कलम ने इसे आपकी आत्मा तक पहुँचाने की कोशिश की है।
📚 लेखक: सतेन्द्र
🕊️ मूल्य आधारित, सरल हिंदी में एक सामाजिक परिवर्तन की कथा