लेखक की कलम से
मैं सतेन्द्र, अपने पहले उपन्यास “यह प्यार कुछ और ही है” को आपके हाथों में सौंपते हुए अत्यंत गर्व महसूस कर रहा हूँ। यह केवल राहुल और अंजलि की प्रेम कहानी नहीं, बल्कि मेरी दो वर्षों की मेहनत, अनुभवों और भावनाओं से बुनी आत्मिक यात्रा है। इस रचना ने मुझे न सिर्फ लेखक, बल्कि इंसान के रूप में भी निखारा है। यह उपन्यास प्रेम की उन गहराइयों को छूता है, जिन्हें शब्दों में बाँधना आसान नहीं होता। आशा है, यह कहानी आपके हृदय को भी उतनी ही सच्चाई से छुएगी, जितनी सच्चाई से मैंने इसे जिया है।
– सतेन्द्र
अध्याय 1: एक मुलाक़ात, कई सवाल
बदायूँ इंस्टिट्यूट — एक जगह जहाँ ज्ञान की गंगा अविरल बहती थी, आज किसी और ही धुन में सराबोर था।
मूसलाधार बारिश जैसे पूरे परिसर को अपने आगोश में ले चुकी थी।
बिजलियाँ चमक रहीं थीं, बादलों की गड़गड़ाहट जैसे आसमान भी कोई कहानी सुना रहा हो।
कक्षा के भीतर, इंजी. सुरेश चंद्र अपनी गंभीर और मंथर आवाज़ में पढ़ा रहे थे। हर छात्र उनकी बातों में डूबा हुआ था — तभी…
“मे आई कम इन सर?”
गेट से आई यह धीमी, संकोची आवाज़ किसी झंकार सी सुनाई दी।
सारे चेहरों ने एक साथ पलटकर दरवाज़े की ओर देखा।
वहाँ…
एक लड़का खड़ा था — भीगा हुआ, शांत, और रहस्यमयी।
बारिश की बूंदें उसकी काली बालों से टपक रही थीं। उसकी भूरी आँखें, लंबा कद, और गोल चेहरा — मानो प्रकृति ने खुद उसे रचने में कुछ खास समय लगाया हो।
कंधे पर टंगा बैग और काँपते होंठ, जैसे वो कोई नया पौधा हो, जो अभी धरती से झाँक रहा हो।
“यस, कम इन,”
अध्यापक की आवाज़ आई — ठंडी, मगर सौम्य।
लड़का भीतर आया। उसकी चाल में झिझक थी, पर आँखों में विनम्रता की चमक।
“जी, मेरा नाम राहुल है।
मैं इंजीनियरिंग का नया स्टूडेंट हूँ।
क्या आप मुझे बता सकते हैं कि केमिकल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष की क्लास कहाँ है?”
क्लास में एक सन्नाटा पसर गया।
अध्यापक की आँखों में एक हल्की-सी मुस्कान तैर गई — जैसे कोई पुरानी याद लौट आई हो।
“यह प्रथम वर्ष ही है, और मैं तुम्हारा क्लास टीचर हूँ।
वहाँ जाकर बैठ जाओ।”
पूरी क्लास के चेहरों पर अब जिज्ञासा तैर रही थी।
राहुल, जैसे किसी पुराने सिनेमाघर में दाखिल हुआ हो, जहाँ हर सीट वाला पहले से कोई कहानी बुन चुका हो।
भीगा हुआ वह चेहरा, कुछ कहता नहीं था — लेकिन बहुत कुछ छिपाए बैठा था।
धीरे-धीरे, वो आख़िरी बेंच की ओर बढ़ा। उसके जूते की हर चपचपाहट जैसे सबकी साँसों को थामे रखे थी।
बैठते ही —
उसकी नज़रें उठीं… और जाकर टकराईं पहली बेंच पर बैठी दो लड़कियों से।
वो दोनों, मुँह छिपाकर हँस रही थीं
एक पल को राहुल को अजीब-सा लगा… कुछ उलझन हुई…
पर अगले ही पल, उसने अपनी निगाहें किताबों में गड़ा दीं।
मानो पहली ही मुलाक़ात में कई सवाल उसे घेर चुके थे।
अध्याय 2: किताबों के बीच एक मुस्कान
सुनसान पुस्तकालय में, हर चीज़ थमी हुई थी — जैसे वक़्त ने अपनी रफ़्तार रोक दी हो।
कांच की बड़ी खिड़कियों से छनती हल्की धूप किताबों पर पड़ती, तो वे पुराने खज़ाने-सी चमक उठतीं।
एक कोने में राहुल था — किताबों में डूबा, जैसे कोई पुरानी आत्मा पुराने ग्रंथों की गहराइयों में उतर गई हो।
हर पन्ने की सरसराहट उसके भीतर किसी अदृश्य द्वार को खोलती थी।
कभी मुस्कुरा देता, कभी भौंहे चढ़ा देता — जैसे उन शब्दों से बातें कर रहा हो।
तभी…
उस अजीब-सी खामोशी को एक चुलबुली आवाज़ ने चीर डाला —
“अरे, बारिश का कछुआ आज पुस्तकालय में!”
राहुल ने धीरे से पलटकर देखा।
दो लड़कियाँ।
उनकी हँसी में एक शरारती मिठास थी, जैसे बरसात के बाद खिली धूप हो।
सुनहरी आँखें, काले बाल — और वो गेहुआँ रंग जैसे किसी कवि की कल्पना।
राहुल पहचान गया — वही थीं जो उस दिन बारिश में खिलखिलाई थीं।
पुस्तकालय की पुरानी दीवारों पर अब उनकी उपस्थिति से जीवन दौड़ने लगा था।
“हाय, मेरा नाम अंजली है,”
एक लड़की ने आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया। उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास था — और आँखों में अटखेलियाँ।
राहुल ने कुछ नहीं कहा।
बस अपनी दुनिया में डूबा रहा — जैसे कोई साधु ध्यान में मग्न हो।
“ओह… तो लगता है बदायूँ इंस्टिट्यूट में नए हो?”
उसके स्वर में सवाल नहीं था, शिकायत थी कि “इतनी चुप्पी क्यों?”
राहुल ने एक धीमी-सी दृष्टि डाली, और फिर कहा:
“जी, मेरा नाम राहुल है।”
फिर उसी लगन से किताब के पन्ने पलटने लगा, मानो कोई मोह नहीं, कोई व्याकुलता नहीं।
अंजली को रुकना नहीं आता था।
उसकी बातों में बचपन का नटखटपन था।
“कल बारिश काफी तेज़ हो रही थी न? इनसे मिलो, मेरी बेस्ट फ्रेंड नेहा, मैरी नेहा एक्चुअली।”
नेहा ने राहुल की तरफ देखा।
हल्की-सी मुस्कान दी — एक ऐसी मुस्कान, जिसमें सैकड़ों सवाल छुपे थे।
“वेरी नाइस टू मीट यू नेहा जी, लेकिन मैं अभी कुछ पढ़ रहा हूँ,”
राहुल का जवाब सीधा, लेकिन नर्म था — जैसे वो दिल तो रख रहा हो, लेकिन दूरी भी।
अंजली ने एक तीखी निगाह मारी और बोली:
“क्या तुम्हें पता है, अगले सप्ताह हमारे इंस्टिट्यूट में गेम्स होने वाले हैं? क्या तुमने भी गेम्स में भाग लिया है?”
राहुल फिर उसी सहजता से:
“जी नहीं।”
अंजली मुस्कुरा उठी, लेकिन इस बार उसकी आँखों में एक जिद थी —
“शक्ल से तो बड़े अमीर और पागल लगते हो।”
राहुल मुस्कुराया नहीं।
उसकी आवाज़ सधी हुई थी, जैसे किसी वीराने से आती कोई सच्ची आवाज़:
“जी नहीं, मैं गरीब और होशियार हूँ।”
कहते हुए वह उठ गया और चला गया —
धीरे-धीरे, अपनी ही लय में।
अंजली और नेहा उसे जाते हुए देखती रहीं…
उनके चेहरों पर अब भी वही मुस्कान थी —
पर अब उसमें जिज्ञासा थी, मानो वे किसी रहस्य को जानने की शुरुआत कर चुकी हों।
अध्याय 3: शरारत की बिसात
धूप की सुनहरी किरणें कॉलेज के लॉन में फैल रही थीं। चारों ओर चहकते युवा, हँसी-ठिठोली, और भविष्य के रंगीन सपने। इसी बीच, अंजली अपनी वही पुरानी मुस्कान लिए, जैसे कोई चालाक शतरंज की खिलाड़ी — अपनी अगली चाल सोच रही थी।
अंजली — जितनी सुंदर, उतनी ही शरारती। उसकी हर अदा में एक मासूम साज़िश छिपी रहती थी। बदायूँ के मशहूर व्यापारी वीरेंद्र प्रताप सिंह की इकलौती बेटी — और इस शहर की रानी-सी लड़की — जिसे ना कहना किसी के बस में नहीं था।
इस बार उसका निशाना कोई और नहीं, बल्कि केमिकल इंजीनियरिंग का सीधा-सादा लड़का था — राहुल। वो जो किताबों की दुनिया में खोया रहता, जिसका दिल आसानी से चुराया जा सकता था।
“यार, तू यह सब छोड़ क्यों नहीं देती? क्यों किसी को खामखा परेशान करना?”
नेहा ने अंजली को हल्के से टोका। उसकी आवाज़ में नाराज़ी से ज़्यादा चिंता थी — एक सच्ची दोस्त की चिंता। नेहा जानती थी, अंजली की शरारतें कभी-कभी हदें पार कर जाती हैं।
“क्या यार तू भी… इतना मत परेशान हुआ कर। फिर भी, हम उसे बाद में बता ही देंगे कि यह सिर्फ़ एक मज़ाक था, बस।”
अंजली ने लिपस्टिक का ढक्कन बंद किया और बैग में अपने मेकअप का सामान रखा। उसकी आँखों में एक अजीब चमक थी — जैसे कोई बच्चा पटाखे छुपा रहा हो।
उसे क्या पता था कि ये चमक, अगले ही मोड़ पर आँसुओं की बारिश में भीग जाएगी।
वो क्षण — जब वक़्त चुपचाप नियति की बिसात बिछा रहा था।
वो जानती तक नहीं थी कि उसका यह छोटा-सा मज़ाक, राहुल की मासूम दुनिया को तहस-नहस कर देगा। उसका एक इरादा — एक जीवन की दिशा बदल देगा।
शायद नियति ने उसी दिन अपनी चाल चल दी थी, और अंजली…
वो तो बस एक मोहरा थी — इस खेल में, जिसे वो ‘मज़ाक’ समझ रही थी।
अध्याय 4: खेल का मैदान और नियति का खेल
सुबह की हल्की धूप मैदान पर सुनहरी चादर बिछा रही थी। चारों ओर झंडियाँ लहरा रही थीं, स्पीकर पर उत्सव गीत बज रहे थे। मैदान कॉलेज कम और किसी मेले की तरह लग रहा था — उत्साह, ऊर्जा, और एक अनदेखे तूफान की परछाईं…
खेल की सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं।
अगले दिन सुबह, कॉलेज का मैदान उत्सव सा लग रहा था।
हर कोने में उत्साह और उमंग का संचार था।
राहुल कॉलेज पहुँचा तो उसके होश उड़ गए।
उसकी आंखों के सामने एक नोटिस चमक रहा था — “बाइक रेसिंग प्रतियोगिता – प्रतिभागी: राहुल शर्मा…”
बाइक रेसिंग के लिए उसका नाम पहले ही दर्ज था।
उसने कभी बाइक रेसिंग की बात सोची भी नहीं थी।
वो हक्का-बक्का सा वहीं खड़ा था कि तभी एक आवाज़ आई —
“अरे राहुल, तुम इतना लेट…” खेल टीचर ने पूछा।
“जी सर, वो मेरा नाम बाइक रेसिंग…”
राहुल कुछ और कह पाता कि तब तक टीचर जा चुके थे।
भीड़ में हँसी, मस्ती, ढोल की थाप थी — पर राहुल के दिल में एक अनकही बेचैनी…
राहुल के मन में एक अनजानी बेचैनी उठने लगी।
किसने किया होगा ये सब?
उसने अपना बैग उठाया और ड्रेसिंग रूम में चला गया।
वहीं थोड़ी दूरी पर अंजली भी खड़ी थी।
उसकी गुलाबी स्कर्ट और टॉप, उसकी सुंदरता को और बढ़ा रहे थे।
वह पहले से अधिक आकर्षक और खिलखिलाती लग रही थी।
उसकी निगाहें चुपके से राहुल पर टिकी थीं।
संगीत धीमा होता है। नेहा की निगाहें अंजली की ओर घूमती हैं।
“तुम्हें पता है नेहा, मैं कौन हूँ?”
अंजली ने बड़े ही इत्मीनान से नेहा से पूछा।
उसकी आवाज़ में एक अदम्य आत्मविश्वास था।
“अरे, कौन नहीं जानता आपको मैडम, सब तुम्हें ही तो देखने आए हैं,”
नेहा ने उत्तर दिया, उसकी आवाज़ में थोड़ी-सी खीझ थी।
“मैं वो हूँ जो बरसात के कछुए को भी बाइक पर बिठालने का दम रखती है।”
अंजली ने मुस्कुराते हुए कहा, उसकी आँखों में एक शरारती चमक थी।
“चलो-चलो… बहुत मज़ा आएगा, रेस शुरू होने वाली है!”
चारों ओर से आवाज़ें आने लगीं।
राहुल अब भी भीड़ से अलग, अपने सोचों में खोया था —
उसके मन में कई सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे।
तभी कैप्टन जोर से चिल्लाया, “3… 2… 1… गो!”
स्पीड… धड़कनें… और धूल उड़ाती बाइकें।
सभी खिलाड़ी रेस करने लगे, हवा को चीरते हुए, अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हुए।
जीतने वाले को बदायूँ रेलवे स्टेशन रोड से होकर पुलिस लाइन का का चक्कर लगाते हुए कॉलेज सबसे पहले पहुँचना था।
यह सिर्फ़ एक रेस नहीं थी, यह जुनून और जीत की एक अनकही कहानी थी।
अचानक, दूर सड़क पर खड़ा एक लड़का जोर-जोर से चिल्लाया,
“सर… सर… सर! राहुल की बाइक खाई में गिर गई!”
वक़्त थम गया।
हवा में उड़ती रंगीन झंडियाँ रुक गईं।
माइक की आवाज़ बंद हो गई।
चारों ओर सन्नाटा पसर गया।
खुशी का माहौल पल भर में मातम में बदल गया।
तुरंत ही राहुल को सिटी हॉस्पिटल ले जाया गया।
नियति ने अपना खेल खेल दिया था।
अध्याय 5: सिसकियाँ और एक अनकहा सच
अस्पताल के आईसीयू में हल्की नीली रौशनी फैली थी। मशीनें धीमी गति से बीप कर रही थीं — हर एक आवाज़ जैसे किसी अनजाने डर को जन्म देती।
राहुल सफेद चादर के नीचे बेहोश पड़ा था। सिर पर पट्टियाँ, हाथ में ड्रिप की सुई, और उस मशीन की टक-टक जो अब दिल से ज़्यादा चिंता की रफ्तार माप रही थी।
कांच के पार खड़े सुरेश चंद्र, क्लास टीचर, घबरा चुके थे। उनकी आँखों में चिंता का अक्स साफ़ झलक रहा था।
“उसे क्या हुआ? वह होश में नहीं है, कितनी चोट…?”
उन्होंने डॉक्टर से पूछा, जैसे हर जवाब से पहले खुद ही कांप रहे हों।
पास में खड़ी नेहा की आँखें नम थीं। अंजली का चेहरा पीला पड़ चुका था। उसकी आँखें — जैसे किसी गहरे अँधेरे कुएँ में झाँक रही हों — एकदम शून्य, भावहीन।
इसी खामोशी को चीरते हुए प्रिंसिपल सर आए। उनका चेहरा भी बेहद गंभीर था। ऐसा लग रहा था जैसे वो कुछ बहुत भारी लेकर चले आ रहे हों।
डॉक्टर की आवाज़ आई — शांत, लेकिन भीतर तक चीर देने वाली:
“अभी हम कुछ नहीं कह सकते… सिर में अधिक चोट है। सिर के बल गिरने से मस्तिष्क में खून जम गया है। अगर रक्तस्राव असामान्य हुआ, तो कितने दिन बचे हैं, कहना मुश्किल है।”
उस एक वाक्य ने जैसे कमरे की सारी ऑक्सीजन खींच ली हो।
नेहा के आँसू अब काबू में नहीं रहे।
अंजली अभी भी पत्थर बनी खड़ी थी — जैसे शरीर यहीं हो, आत्मा कहीं और भटक रही हो।
तभी अचानक बाहर से दौड़ते हुए एक लड़का आया और तेज़ आवाज़ में बोला:
“सर! राहुल की बाइक में तो ब्रेक ही नहीं है!”
ये सुनते ही प्रिंसिपल सर का चेहरा तमतमा उठा। उनकी आँखों में आक्रोश और ग़ुस्से की चमक थी।
“किसका काम है ये? आखिर किसने किया होगा यह सब?”
उन्होंने सबकी तरफ सख्त नज़रों से देखा।
अंजली, जैसे कोई बाँध टूट गया हो, एक झटके में कमरे से बाहर भागी। अस्पताल के बाहर मैदान में जाकर घास पर चुपचाप बैठ गई — जैसे ज़मीन में समा जाना चाहती हो।
अंदर उसके सीने में आँधी चल रही थी।
नेहा पीछे-पीछे आई।
उसने अंजली के कंधे पर हाथ रखा — बहुत धीरे से, जैसे कोई टूटे हुए इंसान को छूता है।
“क्या हुआ अंजली?”
अंजली ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसकी आँखों से टपकते आँसू — सब कुछ कह गए।
नेहा ने धीरे से पूछा:
“क्या अंजली, तुमने ये सब किया?
मुझे तुमसे बिल्कुल भी ये उम्मीद नहीं थी।
अस्पताल में राहुल मरने की हालत में है… डॉक्टरों ने कह दिया कि वो अब बस कुछ साल ही ज़िंदा रह पाएगा।”
नेहा की आवाज़ काँप रही थी — आक्रोश से, दर्द से, टूटन से।
अंजली अचानक नेहा के गले लग गई और फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी हर सिसकी, उसकी हर आह — जैसे उसका अपराध स्वीकार कर रही थी।
“मैं तो… सिर्फ राहुल से मज़ाक…”
पर ये मज़ाक अब किसी की ज़िंदगी को मौत के किनारे पहुँचा चुका था।
अध्याय 6: माफ़ी और एक अनचाहा समझौता
हल्की सी धूप खिड़की से भीतर झाँक रही थी। अस्पताल की सफेद दीवारों के बीच, राहुल की निस्तेज काया अब धीरे-धीरे उठने लगी थी। दो महीने बाद, जैसे समय खुद उसके घावों पर मरहम बनकर बीत गया था।
वो कमज़ोर था… लेकिन उसकी आँखों में वही पुरानी चमक अब भी ज़िंदा थी — एक आसमान छूने की चाह वाली चमक।
धीरे-धीरे चलते हुए वो अस्पताल के दरवाज़े से बाहर निकला… और सीधे अपने किराये के छोटे से कमरे में पहुँच गया।
उसने माँ-बाप को अब भी कुछ नहीं बताया था।
एक सच, जो सीने में चुपचाप दबा हुआ था।
“इसरो, केरल… वो सपना अब शायद सपना ही रह गया,”
उसने खिड़की के बाहर आसमान की ओर देखते हुए बुदबुदाया।
और आसमान… मौन था।
कॉलेज के गलियारे में एक लड़का भागता हुआ आया।
“अंजली… तुम्हें प्रिंसिपल सर बुला रहे हैं।”
अंजली के कदम मानो ज़मीन में धँस गए हों। वो काँपते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ी।
दरवाज़ा खोला गया — और सामने थी एक सन्नाटा ओढ़ी हुई दुनिया।
“सर… वो मैं, मैं तो सिर्फ़…”
उसकी आवाज़ रुक गई, जैसे गले में कोई कांटा अटक गया हो।
“चुप रहो तुम!”
प्रिंसिपल की गरजती हुई आवाज़ कमरे की दीवारों से टकराकर गूँज उठी।
उनके चेहरे पर धधकता हुआ क्रोध साफ़ दिखाई दे रहा था।
“रेसिंग बाइक का ब्रेक निकालकर… उसे जान से मारना चाहती थी तुम?”
“तुम्हें कॉलेज से निकाला जाता है!”
तभी दरवाज़े से एक धीमा, थका हुआ लेकिन स्थिर स्वर आया —
“नहीं सर… दरअसल बाइक का ब्रेक… खराब हो गया था।”
सन्नाटा टूट गया।
प्रिंसिपल ने सिर उठाकर देखा — सामने राहुल खड़ा था।
कमज़ोर, लेकिन मुस्कुराता हुआ।
सबकी साँसें थम गईं।
“राहुल! कैसी तबीयत है अब तुम्हारी?”
प्रिंसिपल के चेहरे पर एक मिश्रित भाव था — राहत और ग्लानि का।
राहुल ने धीरे से अंजली की ओर देखा।
उसकी आँखों में ना कोई नफ़रत थी, ना कोई ताना — सिर्फ़ एक मौन क्षमा।
“शायद कुछ लोगों की दुआएँ थीं… और हम बच गए।”
उसने हल्के से कहा, और नज़रें झुका लीं।
“सर, कृपया अंजली को कॉलेज से मत निकालिए।”
इतना कहकर राहुल मुड़ गया… और कमरे से बाहर चला गया।
अंजली वहीं जड़ सी खड़ी रह गई।
उसके दिल में एक ज़ोर का भँवर उठ रहा था — पछतावे और प्यार का।
उसने सिर झुका लिया…
“आख़िर वजह भी तो मैं ही हूँ,”
उसने खुद से कहा, आँखों से गिरते आँसुओं को छुपाते हुए।
राहुल की वो क्षमा, वो आँखों में भरा प्रेम…
उसे अंदर तक झकझोर गया था।
अब अंजली जानती थी —
“राहुल को मेरी ज़रूरत है।
चाहे वो माफ़ कर दे, पर मैं खुद को कैसे माफ़ करूँ?”
अध्याय 7: वादा उस शाम का
हाथी पार्क, बदायूं…
शाम की हल्की पीली धूप पेड़ों के पत्तों से छनकर ज़मीन पर बिछ रही थी। हवा में एक सन्नाटा था, जैसे समय खुद थम गया हो।
एक सूनी बेंच पर राहुल बैठा था — चुप, गुमसुम, जैसे उसके भीतर कोई ज्वालामुखी शांत पड़े आसमान को ताक रहा हो। पेड़ों की सरसराहट उसके भीतर के तूफ़ान को और बेचैन कर रही थी।
“राहुल…”
उसने धीरे से गर्दन घुमाई। अंजली खड़ी थी — साँसें तेज़, आँखों में आँसू, होंठ काँपते हुए, मानो उसका दिल उसके गले तक आ गया हो।
“मुझे माफ़ कर दो राहुल… प्लीज़…”
राहुल ने बिना कुछ कहे सामने पेड़ों की ओर देखा, उसकी आँखें बुझी हुई थीं — जैसे सपनों की राख अब पलकों पर जम चुकी हो।
“हूँ… बैठ जाओ,” राहुल की आवाज़ ठंडी थी, लेकिन उसकी थकान चीख रही थी।
अंजली धीरे-धीरे पास बैठ गई, उसके हाथ काँप रहे थे।
“मैं नहीं जानती तुमने मुझे माफ़ किया या नहीं… लेकिन…” वह रुक गई, उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
“मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ… मुझे तुम्हारा साथ चाहिए, राहुल।”
राहुल ने ऊपर आसमान की ओर देखा — बादल सुस्त गति से बह रहे थे, मानो वह भी किसी सोच में डूबे हों।
“ये मौसम देखो… कितना शांत है। जैसे सब कुछ रुक गया हो। जैसे दिल को थोड़ी राहत मिल रही हो।”
उसके लहज़े में एक रहस्यमयी मुस्कान थी, और वह मुस्कान अंजली को डरा रही थी।
अंजली ने थरथराते हाथों से राहुल को गले से लगा लिया।
“राहुल… आई लव यू!”
राहुल चुप रहा। उसकी धड़कनें ज़रूर तेज़ थीं, पर होंठ शांत।
“क्या हुआ राहुल?”
“यह प्यार… कुछ और ही है।”
उसकी आवाज़ में ऐसा कुछ था, जो शब्दों से परे था।
अध्याय 8: प्यार का अनूठा अर्थ
दो साल बाद…
फोन की रिंग बजी — ट्रिंग ट्रिंग… ट्रिंग ट्रिंग…
“हैलो?”
“कैसी हो अंजली तुम? मैं आ रहा हूँ… आज दोपहर की ट्रेन से… तुमसे मिलने…”
राहुल की आवाज़ में एक चमक थी — जैसे कई जन्मों की दूरी अब मिटने वाली हो।
अंजली की धड़कनें तेज़ हो गईं। उसकी आँखों में आसमान उतर आया। वह थरथराते होठों से बोली, “राहुल… मुझे पता था तुम आओगे। जल्दी आओ, अपना ख्याल रखना…” और फिर हँसते हुए उसने फोन रख दिया।
आज वो फूलों-सी महक रही थी। उसने तुरंत नेहा को फोन मिलाया, और जैसे खुशी के समंदर में बहते हुए कहा — “राहुल आ रहा है…”
राहुल अब इसरो का चीफ़ था। नौ लाख की सैलरी, और सपनों की ऊँचाई — वो सब पा चुका था।
अंजली भी अब अध्यापिका बन चुकी थी। दोनों ने वक्त से लड़कर ज़िंदगी को जिया था, और अब वक्त उन्हें मिलाने जा रहा था।
लेकिन… नियति ने फिर अपना खेल खेला।
कुछ देर बाद राहुल का फोन फिर बजा।
उसने मुस्कुराते हुए उठाया — “हाँ अंजली?”
पर उस तरफ अंजली नहीं थी।
“राहुल…”
“…अंजली अब इस दुनिया में नहीं रही…”
यह आवाज़ अंजली की माँ की थी — काँपती, डूबती हुई।
“वह तुमसे मिलने बरेली स्टेशन जा रही थी… उसकी कार का एक्सीडेंट हो गया…”
राहुल के हाथ से फोन छूट गया। दिल फट-सा गया। उसकी साँस जैसे किसी ने छीन ली हो।
“अंजली… अंजली…!!!” वह चिल्लाया — और फिर चीखों में डूब गया।
वो टूटा नहीं था, वो बिखर गया था।
अध्याय 9: यह प्यार… कुछ और ही है
दूसरे दिन… बरेली में अंजली का अंतिम संस्कार होना था। घर मातम में डूबा था। नेहा फूट-फूट कर रो रही थी।
“वो नहीं आया… राहुल अब तक नहीं आया,” नेहा की आवाज़ में टूटन थी।
भीड़ में से किसी ने कहा —
“अब क्या आएगा वो लड़का? शादी की बातें तो सब करते हैं, निभाने कोई नहीं आता…”
तभी दूर से शहनाई की आवाज़ आई —
ढोल की थापों के साथ कोई गुलदस्ते लिए चला आ रहा था…
राहुल!
सफेद शर्ट, मुस्कुराता चेहरा, चमकती आँखें — जैसे कोई बारात में आया हो।
“ये पागल है क्या?” भीड़ हैरान थी।
राहुल अंजली के शव के पास पहुँचा… और धीरे से उसके माथे पर चुंबन किया।
“अंजली… उठो! देखो मैं आ गया। हमने वादा किया था ना? आज मैं इसरो का चीफ हूँ! पिताजी अब कुछ नहीं कहेंगे।”
वो अपनी जेब से हीरे की अंगूठी निकाला… और अंजली की उँगली में पहनाते हुए कहा:
“हमारी शादी हुई है! यह हमारी शादी का दिन है!”
“किसी को बधाई नहीं देनी? देखो, मेरी दुल्हन कितनी सुंदर लग रही है…”
उसकी आँखों से बहते आँसू फूलों पर टपकने लगे।
“यह प्यार… यह प्यार कुछ और ही है…” वह बड़बड़ाया —
“यह प्यार… कभी नहीं मरता… इसे कोई मुझसे छीन नहीं सकता…”
राहुल अंजली को गले से लगाकर रोने लगा।
उसका रोना — एक चीख थी, एक सन्नाटा था, एक तूफान था।
पूरा माहौल रो पड़ा।
और तभी, अंजली के पिता वीरेंद्र प्रताप सिंह की काँपती हुई आवाज़ गूंजने लगी —
“यह प्यार… कुछ और ही है…”
“वाह! यह प्यार… कुछ और ही है…”