रामलीला

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लेखक: सतेन्द्र

(मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी का सरल और विस्तारित संस्करण)


प्रस्तावना

हर वर्ष की तरह इस बार भी गाँव में रामलीला का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जा रहा था। गाँव के चौपाल पर, जहाँ आम दिनों में लोग हुक्का गुड़गुड़ाते हुए राजनैतिक बहसों में उलझे रहते थे, वहाँ अब बांस की बल्लियों और रंगीन कपड़ों से बना एक भव्य मंच सजाया जा रहा था। इस बार कुछ अलग था — बच्चों में एक अलग ही उत्साह था। क्योंकि इस बार राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की भूमिका गाँव के ही बच्चों को निभानी थी।

कहानी की शुरुआत होती है दो मित्रों से — मोहन और समर, जो बचपन से एक-दूसरे के साथ पले-बढ़े थे।


रामलीला की तैयारी

गाँव के स्कूल के मास्टर साहब को रामलीला की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। उन्होंने स्क्रिप्ट तैयार की, संवाद लिखे, पात्रों का चयन किया। मोहन को राम की भूमिका मिली और समर को लक्ष्मण की। पूरे गाँव में यह चर्चा फैल गई कि इस बार की लीला बेहद खास होगी — गाँव के बच्चे ही रामायण को मंच पर जीवंत करेंगे।

मोहन पूरे मन से राम की भूमिका में उतर गया। उसने राम के चाल-ढाल, बोल-चाल, और चेहरे के भावों को आत्मसात कर लिया। समर लक्ष्मण बनकर राम की सेवा में जुट गया। गाँव के लोग रोज़ शाम को रिहर्सल देखने आते, तालियाँ बजाते, और बच्चों का हौसला बढ़ाते।

लेकिन जैसे-जैसे रामलीला का दिन नज़दीक आया, मोहन के मन में एक सवाल बार-बार आने लगा — “क्या मैं सच में राम के जैसे बन पा रहा हूँ? क्या राम का आदर्श मेरे भीतर है?”


मोहन का आत्ममंथन

राम की भूमिका निभाना आसान नहीं था। मोहन के पिता शराब पीते थे और अक्सर घर में झगड़ा करते थे। उसकी माँ खेतों में मजदूरी करती थीं। लेकिन राम की छवि तो त्याग, संयम और मर्यादा की थी। मोहन सोचता — “मैं मंच पर राम बन सकता हूँ, लेकिन असल जीवन में राम कैसे बनूँ?”

एक दिन रिहर्सल के बाद वह अकेले बैठा था। गाँव के बूढ़े पंडित जी पास आए और बोले — “बेटा, रामलीला सिर्फ अभिनय नहीं है। ये एक साधना है। राम को मंच पर निभाने से ज़्यादा ज़रूरी है उन्हें अपने अंदर जगाना।”

उनकी बात ने मोहन के भीतर एक नई ऊर्जा भर दी। उसने तय कर लिया — “अब मैं सिर्फ अभिनय नहीं करूँगा, राम को जीऊँगा।”


समर की ईर्ष्या

समर को शुरू में राम न बन पाने का दुख नहीं था, लेकिन जैसे-जैसे तारीफें मिलने लगीं और लोग मोहन की तुलना असली राम से करने लगे, समर के मन में हल्की-सी ईर्ष्या जन्म लेने लगी। वह सोचने लगा, “अगर मैं राम होता, तो मुझमें ज़्यादा नायकत्व आता।”

एक दिन ग़लती से उसने मोहन की पोशाक को फाड़ दिया। जब मोहन ने पूछा, तो वह झूठ बोल गया — “शायद हवा से उड़ गया होगा।”

लेकिन जब मास्टर जी ने कैमरे की रिकॉर्डिंग में देखा कि समर ने जानबूझकर कपड़ा खींचा था, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने समर से कहा — “लक्ष्मण केवल राम का अनुज नहीं होता, वह राम के भीतर के विश्वास का प्रतीक भी होता है। तुम लक्ष्मण बनो या न बनो, लेकिन इंसानियत न खोओ।”

समर को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने मोहन से माफी माँगी। मोहन मुस्कुराया और बोला — “राम, माफ करने में नहीं हिचकते।”


रामलीला का पहला दिन

पूरा गाँव इकठ्ठा हुआ। महिलाएं सज-धज कर आईं, बच्चे रंग-बिरंगे कपड़ों में थे। गाँव के बुज़ुर्ग पहली कतार में बैठे थे। मंच पर जैसे ही नारद प्रवेश करते हैं और देवताओं की सभा लगती है, तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल गूंज उठता है।

फिर धीरे-धीरे दशरथ दरबार, राम का वनवास, केवट प्रसंग, पंचवटी का निर्माण — एक-एक दृश्य आते गए और मोहन हर बार राम के भाव को इतनी सादगी से निभाता कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाते।


रावण का पात्र और गाँव का नया बच्चा

रावण का पात्र निभाने के लिए गाँव में कोई बच्चा तैयार नहीं हुआ। तब बाहर से एक बच्चा आया — नाम था अखिल। वह थोड़ा अलग था — कम बोलता था, अकेला रहता था। लोगों ने कहा, “उसे रावण बनने दो, उसे अभिनय का शौक है।”

लेकिन मोहन ने अखिल से दोस्ती कर ली। राम और रावण के बीच मंच पर युद्ध होता, लेकिन मंच के पीछे दोनों साथ बैठकर गुड़ की पट्टियाँ खाते।

एक दिन अखिल ने मोहन से कहा — “तुम्हें सब राम कहते हैं, लेकिन तुम्हें देखकर लगता है कि राम सच में होते हैं।”

मोहन मुस्कुरा कर बोला — “और रावण भी तुम्हारे बिना अधूरा है, भाई।”


राम का असली अर्थ

रामलीला अपने अंतिम चरण में थी। सीता हरण, हनुमान का लंका जाना, संजीवनी बूटी, और फिर अंतिम युद्ध — सबकुछ सजीव रूप में मंचित हुआ। मोहन अब मंच पर नहीं, अपने जीवन में भी राम जैसा व्यवहार करने लगा था।

उसने पिता की शराब छुड़वाने की ठानी, माँ के लिए घर के कामों में मदद करने लगा, और स्कूल में पढ़ाई में भी अव्वल आने लगा। गाँव के लोग कहने लगे — “रामलीला ने हमारे गाँव के बच्चों को बदल दिया।”


अंतिम दिन: राम का राज्याभिषेक

राम के अयोध्या लौटने और राज्याभिषेक के दृश्य में पूरा गाँव भावुक हो गया। मंच पर जब मोहन ने राम की मुद्रा में जनता की ओर देखकर कहा — “जनता ही मेरे लिए भगवान है, उनकी सेवा ही मेरा धर्म।”

तो हर किसी की आँखों में आँसू थे।


समापन

रामलीला केवल एक नाटक नहीं थी। वह बच्चों की सोच, गाँव की आत्मा और समाज की सच्चाई का आईना बन गई थी। मोहन, समर, अखिल — तीनों अब सिर्फ किरदार नहीं थे, वे आदर्श बन चुके थे।

राम बनने के लिए मुकुट की नहीं, मर्यादा की ज़रूरत होती है।


लेखक का संदेश (सतेन्द्र की कलम से)

मुंशी प्रेमचंद की ‘रामलीला’ हमें ये नहीं सिखाती कि मंच पर अभिनय कैसे किया जाता है, बल्कि ये सिखाती है कि ज़िंदगी का मंच सबसे बड़ा होता है, और वहाँ अपने किरदार को निभाना ही असली धर्म है।

इस कहानी को मैंने इसीलिए सरल और विस्तार में लिखा ताकि हर पाठक राम की मर्यादा, लक्ष्मण की निष्ठा और रावण की अहम को समझ सके।

आज ज़रूरत है कि हम सब अपने भीतर के राम को खोजें।


लेखक: सतेन्द्र

(मानव-लेख शैली में विस्तारित प्रस्तुति | मूल कथा: मुंशी प्रेमचंद)


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