सूरदास की झोंपड़ी

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शीर्षक: सूरदास की झोंपड़ी – एक नई दृष्टि से लेखक: सतेंद्र


गाँव की उस टूटी-फूटी पगडंडी पर चलते हुए जब पहली बार सूरदास की झोंपड़ी नज़र आती है, तो कोई सहज ही कह सकता है—यह तो बस मिट्टी और घास की एक गुमटी है। पर जो उस झोंपड़ी के भीतर एक बार बैठ गया, वह जान गया कि वह झोंपड़ी नहीं, जीवन का पाठशाला है।

यह कहानी है सूरदास की, एक अंधे बूढ़े ब्राह्मण की, जिसने आँखें खो दी थीं पर दृष्टि नहीं। यह कहानी है उस झोंपड़ी की, जो न केवल एक इंसान की शरण थी, बल्कि पूरे गाँव की आत्मा बन चुकी थी। यह कहानी है इंसानियत, स्वार्थ और सामाजिक व्यवस्था की टकराहट की।


1. सूरदास – जो देखता था बिना आँखों के

सूरदास को लोग ‘पंडित’ कह कर बुलाते थे, पर वह खुद को सिर्फ़ “गाँव का एक बुढ़ा सेवक” कहता था। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, पर आवाज़ में अब भी वह मिठास थी जो बच्चों को चुप कर दे और बूढ़ों को सोचने पर मजबूर कर दे। उसका अंधत्व जन्मजात नहीं था। कभी वह एक मंदिर का पुजारी था, लेकिन एक दिन मंदिर की राजनीति में फँस कर उसकी आँखें छीन ली गईं।

“भगवान ने आँखें लीं, पर विवेक दिया,” वह अक्सर मुस्कराकर कहता।

उसकी झोंपड़ी गाँव के किनारे बबूल के पेड़ों के नीचे थी। छत से बारिश टपकती थी, दीवारों पर मिट्टी की दरारें थीं, पर सूरदास के हृदय में इतनी जगह थी कि गाँव का हर दुःखी वहाँ आश्रय पा जाता।


2. गाँव और व्यवस्था

गाँव का नाम था – महुआपुर। एक साधारण सा गाँव, पर वहां के लोग सरल नहीं थे। वहाँ चौधरी हरिप्रसाद का राज चलता था। उसने स्कूल के नाम पर ज़मीन कब्ज़ा रखी थी, तालाब को अपने खेतों में मिला लिया था, और मंदिर को राजनैतिक मंच बना दिया था।

चौधरी को सूरदास की झोंपड़ी एक काँटे की तरह चुभती थी। वह गाँव के उस कोने में एक नंगी सच्चाई थी जहाँ चौधरी अपनी झूठी इमारतें खड़ी नहीं कर सकता था।

“यह अंधा क्या कर लेगा? बस बैठा रहता है और लोगों को भड़काता है,” चौधरी अकसर पंचायत में कहता।


3. झोंपड़ी का असर

पर सच तो यह था कि सूरदास की झोंपड़ी गाँव के बच्चों का पाठशाला थी, बहुओं का परामर्श केंद्र, और बुजुर्गों की सभा। जो कुछ भी प्रशासन नहीं कर सका, वह इस अंधे आदमी की एक चुटकी सलाह से हो जाता था।

“बिटिया, तू पढ़ेगी तो यह दीवारें नहीं, दुनिया तेरे आगे झुकेगी,” वह नन्ही सुनीता को रोज़ कहता, जिसे उसके पिता स्कूल भेजने से मना करते थे।

सूरदास की यह बात हवा में नहीं जाती। धीरे-धीरे गाँव की बच्चियाँ स्कूल जाने लगीं। एक बदलाव की नींव उसकी झोंपड़ी में रखी जा रही थी।


4. टकराव की शुरुआत

चौधरी को यह परिवर्तन रास नहीं आया। उसे लगा कि सूरदास गाँव में उसके साम्राज्य को चुनौती दे रहा है। एक दिन वह अपने गुंडों के साथ झोंपड़ी के सामने आया और गरज कर बोला, “यह ज़मीन सरकारी है। तुझे निकाल दिया जाएगा।”

सूरदास ने शांति से जवाब दिया, “अगर यह ज़मीन सरकार की है, तो सरकार कहे, आप क्यों कह रहे हैं?”

भीड़ जमा हो गई। गाँव के लोग दो हिस्सों में बँट गए – एक जो सूरदास के साथ थे, और एक जो चौधरी के डर से चुप थे।


5. सत्य की आहट

बच्चे, जिनका भविष्य उस झोंपड़ी से जुड़ा था, सूरदास के पास आ खड़े हुए। एक-एक करके महिलाएं भी बोलने लगीं:

“हमारे बच्चों को स्कूल जाने की हिम्मत सूरदास बाबा ने दी।”

“जब मेरे पति ने मारा था, यही झोंपड़ी मेरी माँ बन गई थी।”

इतना सुनना था कि चौधरी का चेहरा उतर गया। पर वह झुकने वाला नहीं था। उसने अगले दिन थाने में रिपोर्ट करवा दी – “एक अंधा सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर बैठा है।”


6. प्रशासन का हस्तक्षेप

पुलिस आई। एक दरोगा और दो सिपाही। सूरदास शांत बैठा था, एक पुराना भगवद गीता का फटा-सा पन्ना हाथ में लिए।

“पंडितजी, आपको झोंपड़ी खाली करनी होगी,” दरोगा ने सख्त स्वर में कहा।

“क्यों दरोगा जी, क्या आप गीता पढ़ते हैं?” सूरदास ने पूछा।

“नहीं।”

“तो आप मेरी झोंपड़ी क्यों ले जाना चाहते हैं? इसमें जो पढ़ाई होती है, वह गीता से कम नहीं।”

दरोगा झेंप गया। गाँव की भीड़ पुलिस के चारों ओर खड़ी हो गई। महिलाओं ने कहा, “पहले हमें जेल ले जाइए, फिर इस झोंपड़ी को हटाइए।”


7. एक नया सवेरा

इस घटना की खबर शहर के एक अखबार में छपी – ‘अंधे की रोशनी से चमकता गाँव’। एक सामाजिक कार्यकर्ता उस गाँव में आया और पूरी स्थिति को समझा। उसने एक छोटी लाइब्रेरी खोलने का प्रस्ताव दिया, जिसका संचालन सूरदास करेंगे। सरकार ने झोंपड़ी की ज़मीन को ग्राम-सेवा केंद्र के रूप में घोषित कर दिया।

चौधरी की हार हो चुकी थी। पर सबसे बड़ी जीत थी – उस झोंपड़ी की, जिसने साबित कर दिया कि एक अंधे बूढ़े की रोशनी किसी व्यवस्था की रोशनी से कहीं अधिक तेज़ होती है।


8. अंत नहीं, एक शुरुआत

साल बीत गए। अब महुआपुर में एक सुंदर पुस्तकालय है, जहाँ सूरदास की मूर्ति है – हाथ में गीता और मुस्कराता चेहरा। गाँव के बच्चे जब भी वहाँ जाते हैं, तो कहते हैं:

“हम सूरदास की झोंपड़ी में पढ़ने आए हैं।”

कभी-कभी सोचता हूँ—झोंपड़ियाँ उजड़ती नहीं, अगर वे इंसानियत के लिए बनी हों।

सूरदास ने अपनी आँखों से नहीं देखा, पर उसने जो देखा, वह शायद आँखों वाले कभी न देख सकें।


लेखक टिप्पणी:

यह कहानी केवल एक अंधे व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन सबकी है जो व्यवस्था के अन्याय के सामने चुप नहीं होते। यह कहानी है उस रोशनी की, जो आँखों से नहीं, आत्मा से निकलती है। यह एक नया सूरदास है – जो आज भी हर गाँव में ज़रूरी है।

(कहानी समाप्त)


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