शतरंज के खिलाड़ी

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शतरंज के खिलाड़ी
लेखक: सतेन्द्र


प्रस्तावना

लखनऊ की ठंडी हवाएँ, पुरानी हवेलियों की गूंज, और दीवानों में उठती घंटियाँ—ये सब मिलकर उस दौर का ऐब-ओ-रूह बनते थे जब अंग्रेजों का साया भारत पर गहरा था। इसी समय की कहानी है वह, जिसमें दो नवबिहारी नवाब—शाहजी बेग और सतारी बेग—और एक साधारण मगर होनहार शतरंजी खिलाड़ी निर्मल सिंह जुड़ते हैं।

यहाँ वर्णित घटनाएँ मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी “शतरंज के खिलाड़ी” की अर्थवृद्धि रूपांतरित रूप में प्रस्तुत हैं। कहानी का केंद्र है शतरंज और उसकी एक छोटी-सी दुनिया, जो असल में भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक, राजनीतिक और मानवीय उलझनों का प्रतीक थी।


अध्याय १: हवेली की ऊँची खिड़कियाँ

लखनऊ की उस प्राचीन हवेली में बस दो ही आत्माएँ थीं—नवाब शाहजी बेग और नवाब सतारी बेग। ये दोनों चचेरे भाई थीं, जो रक्त संबंध से न करीब थे और रिश्तेदारी से भी जुदा। दोनों के घर-आँगन बंगाल की चीनी दीवारों से सजे, चौकोर-सी मंज़िल पर बने भव्य कमरे और नक्काशीदार खिड़कियाँ थीं, पर इन हवेलियों में इंसानियत की हवा कम ही बहती थी।

शाहजी बेग एक तनख्वाहदार नवाब था, जिसे अंग्रेज़ हुकूमत ने कोतवाली का ऐलान करके तन के साथ वेतन भी बांटा था। उनके पास बड़ा-सा बंगला था, लेकिन दिल सूना सूना। सतारी बेग कोतवाली से अलग, चीफ मिनिस्टर का बड़प्पन मिला था, पर मन हमेशा बेचैन रहता।

नवाबों के दिन भर के काम-धाम की जगह शतरंज के खेल ने ले रखा था। दीवान-ए-खास की एक कोने में पुरानी लकड़ी का शतरंज का बोर्ड रखा रहता, जिस पर हाथों ने अब तक हजारों चालें चलीं होंगी।


अध्याय २: शतरंज की दीवानगी

शाहजी बेग की नज़रें अक्सर शतरंज के बोर्ड पर टिकी रहतीं। उनके दिमाग़ में अंग्रेजों से लड़ने का कोई जज़्बा नहीं था, सिर्फ एक मोहब्बत थी—शतरंज की चालों के प्रति। वे घंटों इसे खेलते, कभी पाँव लटकाए कुर्सी के किनारे, कभी गर्दन मोड़े, और कभी घंटी बजाकर नौकर बुलाने से पहले तीसरी-पतली चाल पर सोचना ज़रूरी समझते।

एक दिन सतारी बेग ने पूछा, “भाई साहिब, कल मंत्री परिषद के महत्वपूर्ण मसले पर आपकी राय चाहिए थी। आपने शतरंज की बाजी क्यों नहीं छोड़ी? ज़रूरी मुलाकात थी।”

शाहजी बेग मुस्कुराए और बोले, “अकबर, इस बाजी में जो नतीजे निकलते हैं, वही इंसानी जीवन के सच भी बताते हैं। यहाँ हार-जीत की ठीक वैसी ही पेचीदगियाँ हैं, जैसे सत्ता की राजैनीति में।”

सतारी बेग को यह जवाब अजीब लगा, लेकिन उसने फ़िर भी चुप्पी साध ली, क्योंकि हवेली में राज़ इसी चुप्पी की मलिका थी।


अध्याय ३: निर्मल सिंह का प्रवेश

इसी कहानी में अचानक प्रवेश करता है निर्मल सिंह—एक साधारण गांव का नौजवान, जिसे कुछ खास नहीं मिला था सिवाय शतरंज के प्रति अटूट लगाव के। उसने लखनऊ की सर-सी सीट पाने के लिए अपना घर-द्वार छोड़ा था।

नौकरी के फ्राॅस्टुरेशन से बचने के लिए वह अपने आप को हल्का-फुल्का नौकरी-पेशा समझता, लेकिन जब भी वह शतरंज का बोर्ड देखता, उसकी आँखों में चमक आ जाती। वह वहीँ कोल्ड कॉफ़ी की छोटी-सी दुकानदार के पास से एक घोटित फ़ीelate स्टूल उठाकर सेट कर देता और घंटों बैठकर चालें आज़माता।

ख़बर उड़ते-उड़ते दीवान-ए-खास तक पहुंचती है कि निर्मल सिंह में ‘शतरंज का जादू’ है।


अध्याय ४: पहली बाज़ी

एक शाम सतारी बेग ने अचरज में कहा, “शाहजी, आज निर्मल सिंह को बुलाओ, हम कुछ नई चालों पर चर्चा करेंगे।” शाहजी बेग को अच्छा लगा। उसमें भी दिलचस्पी थी—मगर दोनों नवाब खुद ही आत्ममुग्ध थे, अपनी-अपनी चालों में फँसे हुए।

निर्मल सिंह को गुलदस्ता लिटाया गया। उसके हाथ कांप रहे थे, क्योंकि सामने दिवाने-ए-बड़, दोनों नवाब बैठे थे। बोर्ड रखा गया और खेल शुरू हुआ। नवाबों का अंदाज़ निहायत फ़ॉर्मल था—धीरे पैर की ऊँगली हिलाना, तो कभी आँखें मूँदकर सोचते रहना।

निर्मल सिंह ने पहली चाल में ही फ़र्क-ओ-फ़रम समझ लिया—नवाबों का खेल आसान नहीं था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपनी चालें नेत्रहीन सोची, मोहरे आगें-बागों की तरह बिछाए, और अंततः एक अप्रत्याशित चेकमेट दे दिया।

नवाब सन्न थे—उनकी चाय-चीनी की जुबान रुक-सी गई। अतिथि ने नवाबी अहंकार को नतमस्तक कर दिया था।


अध्याय ५: अहंकार की कीमत

नवाबों ने निर्मल सिंह की जीत को सहजता से नहीं लिया। वे दोनों आपस में जाकर गुहारने लगे, “क्या यह नौजवान सचमुच काबिल है? अगर हाँ, तो उसे हमारे संरक्षण में लाया जाए।”

निर्मल सिंह को दीवान-ए-खास में नौकरी मिल गई—फ़िरांसीज़ी कोतवाली में कमज़ोर-सी आमदनी, पर शतरंज का अवसर ढेर सारा था।

शाहजी बेग के दिल में एक हल्की-सी जलन थी। वह सोचते, “हमने तो सात जन्मों से इस खेल को समझा, पर यह नौजवान सिर्फ दो तीन सालों में मुझसे तेज़ कैसे खेलता है?”

सतारी बेग ने कहा, “भाई, असली दांव यही है—दूसरे का अहंकार तोड़ देना।” पर शाहजी बेग जानते थे, खेल की महिमा में अहंकार की कोई जगह नहीं।


अध्याय ६: उथल-पुथल

हवेली में शतरंज की गूंज बढ़ती गई। निर्मल सिंह ने हफ़्ते में तीन-चार बार नवाबों को हराया। उनके मंत्रीगण और दरबारी लोग भी जब-जब प्रयास करते, नया चालीस-चालीस खेलते, पर एक अजनबी की बुद्धि उनकी धुन-सी बदल देती।

इसी बीच अंग्रेज़ अफ़सरों ने नवाबों के बीच तकरार को सियासी मुद्दा बना लिया। “जो अधिक काबिल होगा, वही हमारी सहायता के क़ाबिल होगा।”

शाहजी बेग का दिल टूटा नहीं, पर उन्होंने मुंह बना लिया—अब शतरंज का खेल उनके लिए महज़ खेल नहीं रहा। उसमें सत्ता की ठहरी-सी औकात दिखने लगी।


अध्याय ७: निर्णायक मुकाबला

आख़िरकार तय हुआ कि एक निर्णायक बाज़ी होगी—जहाँ हार-जीत से नवाबी हैसियत तय होगी। हवेली के सामने लॉन सजाया गया। वहां लॉर्ड वेलेजली, कोलकाता का नायब, कारीगर नौकर, और गाँव के आम लोग सब इकठ्ठा हुए।

बोर्ड रखा गया—सफेद-शतरंज के मोहरे चमक रहे थे। निर्मल सिंह ने अपने हाथ पर सूती धोती की लकीर पढ़कर बोला, “मेज़बान नवाबों के सामने फ़तह की उम्मीद करता हूँ।”

पहली चालों में ही माहौल तनावपूर्ण हो उठा। नवाबों ने सोचा-समझा, मोहरे बदले, फ़ौज़ चली। निर्मल सिंह ने चौथी चाल में ऐसे झेल पर चढ़ा दिया कि नवाबों के समूचे सितारे अटक गए।

लड़ाई दसवें मोहरे पर पहुंची—निर्मल ने अचानक अपनी रानी को ऐसे पैदल की तरह ढकेल दिया कि नवाबों को अपना सुलूक ही अजीब लगा। देखा तो पाया—चेकमेट!

भीड़ तालियों से गूंजी, ब्रिटिश अफ़सर मुस्कुराए, पर नवाबों की आँखों में धूप-सी उजास कम थी।


अध्याय ८: पराजय के बाद

नवाबों ने सिर झुकाया—उनका अहंकार टूट चुका था। लॉर्ड वेलेजली ने निर्मल सिंह को बधाई दी और कहा, “आपमें वही गुण हैं जो हम चाहते हैं—दूरदर्शिता, धैर्य, और रणनीति। हम आपकी सेवाओं में दिलचस्पी रखते हैं।”

निर्मल सिंह ने विनम्रता से कहा, “मुझे नवाबी दरबार की सेवा का मौक़ा मिलेगा, इसका सौभाग्य है।” पर दिल में उसे कुछ भारीपन था—वह महसूस कर रहा था कि जो मान-सम्मान उसने पाया, वह शतरंज की सुन्दरता का अपमान था।

नवाबों ने दीवान-ए-खास की शाही मेज़बानी तो की, लेकिन माहौल पहले जैसा नहीं रहा। शतरंज का खेल जैसे उनके लिए अब सिर्फ़ बाज़ीगरों की कोई तुक-तर्क भर रह गया।


अध्याय ९: आत्म-चिंतन

एक रात शतरंज के बोर्ड के सामने बैठा निर्मल सिंह सोच रहा था—क्या उसे सचमुच इस दरबार में रहना चाहिए? खेल की चकाचौंध, नवाबी ऐशो-आराम, अंग्रेज़ी अफ़सरों की तारीफें—सब कुछ था। पर उसकी आत्मा बोल रही थी—“तुम्हारी जगह वहाँ नहीं, तुम तो उस गांव में लौटो जहाँ से तुम आए, और अपनी बुद्धि से लोगों का भला करो।”

उसी रात उसने फैसला किया—वो नवाबी दरबार छोड़कर चलेगा, अपनी कला और बुद्धि को सीधे आम लोगों की सेवा में लगाएगा।


अध्याय १०: नई राह

सूरज निकला, हवेली की खिड़कियाँ सुनहरी-सी चमकीं। निर्मल सिंह ने महज़ एक अलविदा पत्र छोड़ा:

“शतरंज ने मुझे नयी ऊँचाइयाँ दीं, पर असली मुकाम वह है जहाँ इंसानियत और सेवा की जीत हो।”

अगली सुबह गांव पहुँचा। वहाँ स्कूल खोला, शतरंज सिखाने लगा, बच्चों में जज़्बा जगाया। नवाबी दरबार, अंग्रेज़ लोग, सब कुछ पीछे छोड़ उसने सीखा—जीत सिर्फ चेकमेट से नहीं, इंसान के दिल जीतने से होती है।


उपसंहार

मुंशी प्रेमचंद की कहानी “शतरंज के खिलाड़ी” ने हमें सिखाया कि शतरंज सिर्फ़ मोहरों का खेल नहीं, बल्कि मानवीय स्वभाव, अहंकार और बुद्धि का दर्पण है। नवाबी दरबार की चमक-दमक, अंग्रेज़ों की राजनीति, और निर्मल सिंह की साधारण लेकिन दीवानी सोच—ये सब मिलकर एक ऐसी कहानी रचते हैं, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी।

शतरंज के मोहरे—राजनीति के मोहरे, इंसानी जीवन के मोहरे—हमारी ज़िंदगी की चौसर पर चलते हैं। और निर्मल सिंह जैसे खिलाड़ी हमें याद दिलाते हैं कि असली जीत वही है, जहाँ हम अपनी आत्मा की शांति और दूसरों के हित का ध्यान रखते हैं।


लेखक: सतेन्द्र
(इस सरल रूपांतरण में मुंशी प्रेमचंद की अलौकिक कथा को आधुनिक संवेदनाओं और आम भाषा की सौम्यता के साथ प्रस्तुत किया गया है।)


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