रानी सारंधा – एक अधूरी बग़ावत की मुकम्मल गूंज
✍️ लेखक: सतेन्द्र
(प्रेरणा: मुंशी प्रेमचंद की मूल कहानी “रानी सारंधा”)
प्रस्तावना: इतिहास की अनसुनी चीख़
इतिहास के पन्नों में अक्सर राजा-रानियों की वीरता और पराक्रम की कहानियाँ दर्ज होती हैं। लेकिन कई बार कुछ कहानियाँ इतनी खामोशी से गूँजती हैं कि वे हमारे दिलों तक पहुँचती तो हैं, पर किताबों में नहीं। “रानी सारंधा” भी ऐसी ही एक गाथा है—मुंशी प्रेमचंद के कलम से निकली एक गुमनाम रानी की सच्चाई, जो समय की धूल में दब गई, लेकिन आज भी उसकी आँखों में जलता हुआ प्रतिशोध इतिहास को आईना दिखाता है।
यह कहानी इतिहास नहीं, मनुष्य की आत्मा की लड़ाई है। सत्ता के लालच और आत्मसम्मान के बीच फंसी एक स्त्री की लड़ाई। उस रानी की, जिसे सबने धोखा दिया – अपने भी, और पराये भी।
अध्याय 1: सिसकियों के बीच महलों की चमक
राजमहल की दीवारें चमक रही थीं, लेकिन रानी सारंधा के हृदय में अंधेरा छा चुका था।
साम्राज्य छोटा था – जैतगढ़, एक पहाड़ी क़िला, जो बाँध, जंगल और जनजातीय संस्कृति से घिरा हुआ था। पर उस छोटे राज्य की आत्मा बड़ी थी, उतनी ही बड़ी जितनी उसके राजा की कायरता और रानी की प्रतिज्ञा।
राजा रामभूपाल—एक नाम, जो महलों में गूंजता था, पर रणभूमि में कभी नहीं।
“स्वामी, दुश्मन क़िले की ओर बढ़ रहे हैं।”
“शांति से बात करेंगे सारंधा, रक्तपात क्यों करें?” राजा ने घबराए स्वर में कहा।
रानी ने पहली बार पति को आँखों में देखा, लेकिन प्रेम नहीं, प्रश्नों से।
“राजा वो नहीं होता जो ताज पहन ले, राजा वो होता है जो अपनी प्रजा के लिए तलवार उठाए।”
अध्याय 2: छल और चुप्पियाँ
राजा ने मुग़ल सूबेदार हाशिम खान के आगे घुटने टेक दिए। एक गुप्त समझौते के तहत क़िला सौंपने की योजना बनाई गई, बदले में राजा को मुग़ल शासन में एक छोटी जागीर मिलनी थी।
रानी को यह सूचना गुप्तचर से मिली।
वह चुप रही। नहीं क्योंकि वह कमज़ोर थी, बल्कि इसलिए कि उसका प्रतिशोध अब शब्दों से नहीं, आग से बोलने वाला था।
रानी ने अपने विश्वस्त सेनापति विराज को बुलाया।
“हमें राजा से नहीं, उसकी कायरता से लड़ना है। जो प्रजा को बचा नहीं सकता, उसे राजा कहने का हक़ नहीं।”
विराज ने सिर झुका लिया।
“आपका आदेश, रानी।”
अध्याय 3: औरत जो रानी से ज़्यादा थी
प्रेमचंद ने लिखा था – “रानी सारंधा ने चूड़ियाँ नहीं पहनी थीं, तलवार उठाई थी।”
रानी ने क़िले की स्त्रियों को इकट्ठा किया। उन सभी ने मिलकर विद्रोह का प्रण लिया। पुरूष जो भाग चुके थे, या डर के साये में थे, वे देखते रहे कैसे औरतें रणनीति बना रही थीं, तेल गरम कर रही थीं, दीवारों पर तरकश सजाए जा रहे थे।
एक बूढ़ी दाई बोली – “महारानी, हमने सिर्फ बच्चों को जन्म दिया है, तलवार नहीं चलाई।”
रानी मुस्कुराई – “तो आज अपने बच्चों को बचाने के लिए तलवार चलाना सीख लो, माँ।”
अध्याय 4: एक रात, जो सुबह नहीं देख पाई
हाशिम खान की फौज क़िले की ओर बढ़ी। क़िले के फाटक बंद थे, लेकिन किले की दीवारों पर लालिमा थी – मशालों की।
रानी अपने वीरांगनाओं के साथ खड़ी थी।
“आज की रात हमारे जीवन की आख़िरी हो सकती है, लेकिन हमारे आत्मसम्मान की पहली जीत होगी।”
कई सिपाहियों ने आत्मसमर्पण का सुझाव दिया।
रानी ने कहा – “जो डरते हैं, वे महलों में रहें। जो लड़ना जानते हैं, वे मेरे साथ चलें।”
लड़कियों, बुढ़ियों, यहाँ तक कि कुछ छोटे लड़कों ने भी कमर कस ली।
अध्याय 5: आग, ख़ून और आख़िरी अलविदा
लड़ाई शुरू हुई।
रानी ने दुश्मनों के लिए खौलता तेल गिराया, धनुष से एक के बाद एक तीर चलाए। दुश्मन चौंके – औरतें! लेकिन ये औरतें अबला नहीं, संघर्ष थीं।
कई मुग़ल सैनिक मारे गए। क़िले की हर दीवार पर कोई न कोई महिला सिपाही वीरगति को प्राप्त हो रही थी।
रानी अंत में घायल हुई। उसने एक पत्थर की मूर्ति का सहारा लिया। खून बह रहा था, लेकिन उसकी आँखों में अब भी आग थी।
“हाशिम, ये क़िला तुम जीत सकते हो, पर मेरे स्वाभिमान की राख भी तुम्हें जला देगी।”
रानी ने आखिरी तीर अपने सीने में मारा, आत्मबलिदान कर लिया।
अध्याय 6: सत्ता का सत्य, औरत का प्रश्न
राजा रामभूपाल कहीं नहीं दिखा।
कहते हैं, वह समझौते के तहत एक दूरवर्ती प्रदेश चला गया, जहां उसे ‘राजा’ कहकर बुलाया जाता रहा। लेकिन इतिहास जानता है, वो सिर्फ़ एक पलायनकर्ता था।
और रानी सारंधा?
वह शहीद हुई, लेकिन जीवित रह गई – लोकगीतों में, गाँव की कहानियों में, उन औरतों के नामों में जिन्होंने उस दिन साड़ी की जगह तलवार बाँधी थी।
अध्याय 7: आज की रानियाँ कहाँ हैं?
ये कहानी पुरानी ज़रूर है, लेकिन इसका सवाल आज भी ज़िंदा है।
क्या आज की औरतें सारंधा जैसी हैं? क्या आज के राजा, आज के नेता, आज के पुरुष… साहस दिखा पा रहे हैं?
या फिर आज भी एक रानी को अपनी चूड़ियाँ तोड़कर हथियार उठाने पड़ते हैं, क्योंकि पुरुष व्यवस्था अब भी आत्मसमर्पण की नीति पर चल रही है?
अध्याय 8: रानी की समाधि और लेखक की सोच
मैं, सतेन्द्र, जब पहली बार प्रेमचंद की “रानी सारंधा” पढ़ा, तो रोंगटे खड़े हो गए थे। सोचता रहा – क्या वो सचमुच जीती थी? क्या वो कोई कल्पना थी?
लेकिन नहीं। वो एक सत्य थी, जिसे इतिहास ने जानबूझ कर अनदेखा कर दिया।
मैं गया जैतगढ़ की उस वीरान पहाड़ी पर, जहां आज एक टूटी-सी समाधि है। एक औरत की स्मृति, जिसे समय ने भुला दिया।
उस समाधि पर लिखा नहीं है कोई नाम। बस एक शब्द – “रानी”
अंतिम अध्याय: समय को आईना
आज जब हम महलों में नहीं, अपार्टमेंट्स में रहते हैं, तब भी सारंधा हमारे भीतर कहीं है।
हर बार जब कोई औरत अपने हक़ के लिए लड़ती है…
हर बार जब कोई मां अपने बच्चे के लिए समाज से भिड़ती है…
हर बार जब कोई लड़की डर के बावजूद सड़क पर निकलती है…
…तब सारंधा ज़िंदा हो जाती है।
इसलिए यह कहानी महज़ अतीत नहीं, एक चेतावनी है – कि अगर स्त्री को मजबूर किया जाएगा, तो वो तलवार भी उठा सकती है। और तब न राजा बचेगा, न समझौता।
उपसंहार: एक अधूरी कहानी जो पूरी हो चुकी है
रानी सारंधा मरी नहीं थी।
वह अब भी हर उस लड़की में है जो चुप नहीं रहती।
हर उस मां में है जो अपने बच्चे के लिए लड़ती है।
हर उस औरत में है जो झूठे प्रेम, सत्ता या धर्म के नाम पर समझौता नहीं करती।
और शायद, हर उस पुरुष में भी, जो आज रानी बनने का साहस रखता है।
लेखक: सतेन्द्र
“कहानियाँ सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, समाज का दर्पण होती हैं। और कभी-कभी, वही दर्पण समय को घायल कर देता है।”