✍ लेखक: सतेन्द्र
प्रस्तावना:
“सच्चाई अक्सर कपड़े नहीं पहनती, और पश्चाताप के नाम पर समाज जो नाटक करता है, वह कभी-कभी पाखंड से भी बदतर होता है।”
अध्याय 1: गाँव की सुबह
गाँव ‘धूलगाँव’ की सुबह किसी भी आम दिन जैसी नहीं थी। कुत्तों के भौंकने, मटके के पानी गिरने, और औरतों की चूड़ियों की खनक के बीच एक नई खबर उभरी थी —
“विमला लौट आई है।”
विमला — गाँव के स्कूल मास्टर की बहू, जिसे सात साल पहले चोरी के इल्ज़ाम में घर से निकाल दिया गया था। चोरी कितनी बड़ी थी? बस, पाँच सौ रुपये और एक पुराना मंगलसूत्र। लेकिन गाँव के लिए मानो उसने स्वर्ग से हीरा चुरा लिया हो।
“अरे, सात साल बाद मुंह उठाकर आई है… शर्म बची है कहीं?”
यह कहने वाली थीं पुष्पा चाची, जो खुद हर तीसरे महीने किसी औरत का चरित्र प्रमाणपत्र फाड़ देती थीं।
अध्याय 2: विमला कौन थी?
विमला, बचपन से सीधी-सादी। उसका जन्म गरीब धोबी परिवार में हुआ था। हाथ की कला, बोली की मिठास और आँखों में अद्भुत चमक — बस, यही उसकी पूँजी थी। ब्याह हुआ स्कूल मास्टर सुरेश के बेटे राहुल से। सुरेश जी पढ़े-लिखे, व्यवहार में थोड़े घमंडी, लेकिन राहुल बिल्कुल उसके उलट — नालायक, बेरोज़गार, और संदेह की गठरी।
एक दिन राहुल की जेब से रुपये गायब हुए। सुरेश जी का मंगलसूत्र भी नहीं मिला। विमला से पूछा गया, चुप रही। राहुल ने सीधे कहा — “इसने चुराया है।”
और बस, विमला को बिना सुनवाई, बिना गवाही, घर से बाहर निकाल दिया गया।
अध्याय 3: सात सालों की कहानी
विमला ने शहर में काम किया — कभी बर्तन मांजे, कभी सिलाई की, कभी वृद्धाश्रम में देखभाल की। हर जगह एक नाम छुपा रखा — छाया। वह खुद को हर दिन मिटा कर नए नाम से जीती रही।
एक दिन, वृद्धाश्रम की एक बूढ़ी महिला ने उसे अपनी वसीयत में कुछ रुपये दे दिए। विमला के पास अब एक छोटी-सी चाय की दुकान थी, जहाँ वो खुद चाय बनाती, अखबार रखती और कभी-कभी बच्चों को पढ़ा भी देती।
लेकिन एक बात उसे खाए जाती — “उस दिन मैंने चुप क्यों रहना चुना?”
अध्याय 4: लौटना
जब उसने सुना कि सुरेश जी अब अस्वस्थ हैं, राहुल अब भी बेरोज़गार है और घर में कोई संभालने वाला नहीं, तो उसने तय किया — “मैं लौटूंगी, लेकिन खुद को साबित करने नहीं, अपने भीतर की चिंगारी को बुझाने।”
गाँव में उसका आना, आग लगने जैसा था।
“अब क्या मकान भी छीन लेगी?”
“जरूर पैसों से आई होगी, कोई रखैल होगी शहर में।”
लेकिन उसने जवाब नहीं दिया। सीधे सुरेश जी के कमरे में गई। उन्हें प्रणाम किया, दवा दी, और बस यही कहा —
“मैं कुछ भी साबित करने नहीं आई, बस देखना चाहती थी कि आप अब कैसे हैं।”
अध्याय 5: सच्चाई का खुलासा
अगले दिन गाँव में बम फूट पड़ा। राहुल ने कबूल किया कि पैसे उसी ने जुए में उड़ाए थे, और मंगलसूत्र उसने खुद गिरवी रखा था। डर के मारे सब विमला पर डाल दिया।
“पिता जी मुझसे उम्मीद रखते थे, मैं तो सिर्फ एक लंपट निकला। डर गया था, बस।”
पूरे गाँव में सन्नाटा छा गया।
अध्याय 6: प्रायश्चित?
गाँव की पंचायत बैठी। सुरेश जी ने कांपते हाथों से विमला से कहा —
“बहू, माफ कर दो… तुम चाहो तो इस घर में फिर से रह सकती हो।”
विमला मुस्कराई —
“मैंने आपको माफ कर दिया, उसी दिन जब आपने मुझे निकाला था। लेकिन मैं अब छाया नहीं, विमला हूँ। और विमला वापस नहीं लौटती, आगे बढ़ती है।”
अध्याय 7: गाँव की आँखें
गाँव की औरतें चुप थीं, पहली बार। पुष्पा चाची ने साड़ी खींचकर सिर ढँक लिया। कोई कुछ कह नहीं पाया।
लेकिन विमला ने जाते-जाते स्कूल के बाहर बच्चों को किताबें बाँटीं। छोटे मनु ने पूछा —
“दादी, तुम रहोगी नहीं?”
वह मुस्कराई —
“नहीं बेटा, मुझे अब कहीं और चाय बनानी है… सच्ची चाय, बिना दिखावे के।”
उपसंहार
विमला की कहानी सिर्फ चोरी के इल्ज़ाम से शुरू नहीं हुई थी। वो शुरू हुई थी उस दिन जब समाज ने चुप रहने को मर्यादा मान लिया और चुप्पी को न्याय।
उसने प्रायश्चित नहीं किया, क्योंकि गुनाह उसका था ही नहीं।
उसने सच्चाई को जीया, और चुप रहकर सबसे बड़ा तमाचा मारा — उस समाज पर जो सच्चाई से डरता है।
🌾 लेखक की टिप्पणी:
“यह कहानी उन हजारों विमलाओं को समर्पित है, जिन्हें हर दिन समाज बिना सबूत, बिना सुनवाई अपराधी घोषित कर देता है। लेकिन याद रखिए, सच्चाई को कभी भी चुप्पी से हराया नहीं जा सकता।”
✍ – सतेन्द्र