दुनिया का सबसे अनमोल रत्न

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लेखक: सतेंद्र
शीर्षक: दुनिया का सबसे अनमोल रत्न – एक अधूरी तलाश


भूमिका

बचपन में जब पहली बार प्रेमचंद की कहानी “दुनिया का सबसे अनमोल रत्न” पढ़ी थी, तब वह केवल एक पाठ था — एक पाठ जिसमें इंसानियत की महानता और बलिदान की ऊंचाई दिखाई गई थी। पर जब जीवन की धूल आंखों में पड़ी और सच्चाइयों की चुभन महसूस हुई, तब इस कहानी की आत्मा ने भीतर से हिला दिया। यह कहानी अब एक नया रूप लेकर सामने आई है — समय के साथ चलती, किन्तु मूल भावना से अडिग। यह न केवल राजा विक्रमादित्य और एक अनोखे साधु की कहानी है, बल्कि आज के उस आदमी की भी कहानी है जो सच्चे रत्न को खोजने निकला है, पर खुद खोता चला जाता है।


अध्याय 1: विक्रमपुर का बाजार

राजा विक्रमादित्य का राज्य विक्रमपुर अपनी समृद्धि, न्यायप्रियता और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था। यहां की गलियों में चूड़ियों की खनक, मसालों की खुशबू और व्यापारियों की आवाजें जीवन की हलचल को दर्शाती थीं। परंतु उस दिन बाजार में कुछ अजीब था। एक दरिद्र साधु, फटे-पुराने वस्त्रों में, नंगे पांव, धूल से सना चेहरा लिए, पूरे शहर में चिल्ला-चिल्लाकर कुछ बेच रहा था:

“आओ आओ! दुनिया का सबसे अनमोल रत्न लो! न सोना, न हीरा, न जवाहर — इंसानियत का रत्न लो!”

लोग पहले तो हँसे, कुछ ने पत्थर भी मारे, कुछ ने उसे पागल कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया। लेकिन उसकी आंखों में ऐसी चमक थी, जो किसी जौहरी की आंखों में भी नहीं होती।


अध्याय 2: महल में वह आगंतुक

राजा विक्रमादित्य अपने न्यायसभा में बैठकर प्रजा की समस्याएं सुन रहे थे। तभी एक सैनिक भागता हुआ आया:

“महाराज! एक अजीब साधु है। कहता है कि उसके पास दुनिया का सबसे अनमोल रत्न है। और वह आपको देना चाहता है।”

राजा मुस्कराए। “दुनिया का सबसे अनमोल रत्न? क्या यह कोई नाटक है या कोई धोखा?” फिर भी राजा की दृष्टि में सत्य की परख थी, वह बोले:

“उसे लाओ। देखता हूं, यह कौन पागल है जो दुनिया को खरीदना चाहता है बिना दाम के।”


अध्याय 3: साधु और राजा

महल में साधु को लाया गया। राजा ने देखा, एक कृशकाय शरीर, मगर आंखें मानो तपस्या की आग से तप चुकी हों। साधु ने झुककर प्रणाम किया और धीरे से कहा:

“राजन्, मैं जानता हूं, आप न्यायप्रिय हैं। मेरे पास कुछ नहीं है, परंतु जो है, वह अनमोल है।”

राजा ने गंभीरता से पूछा, “क्या है वह रत्न?”

साधु ने अपनी झोली से एक पुरानी मुड़ी-तुड़ी किताब निकाली और कहा:

“यह है रत्न — एक सैनिक की डायरी, जिसने दुश्मन की सेना में रहकर भी अपनों को बचाया। जो मरा, पर घृणा नहीं फैलाई। यह आदमी हीरा नहीं था, न कोई राजा। यह केवल एक साधारण मनुष्य था। पर उसकी आत्मा… वह थी इंसानियत का सबसे उज्ज्वल रत्न।”

राजा ने किताब ली, पढ़ना शुरू किया — और जैसे-जैसे पढ़ते गए, उनकी आंखें भीगती चली गईं।


अध्याय 4: डायरी के पन्ने

डायरी में लिखा था:

*”मैं अब्दुल हूँ। मैं मुसलमान हूँ। पर मेरी रगों में वही खून है जो राजपूतों में है, वही पानी है जो गंगाजल में है। मैं अफगान सेना में जबरन भर्ती कर दिया गया, पर मेरी आत्मा हिंदुस्तानी थी। जब आदेश मिला कि औरतों और बच्चों को मार डालो, मेरा शरीर कांप गया। रात को चुपचाप मैंने कई गांववालों को जंगल में छुपा दिया। पकड़ा गया। कोड़े खाए, पर जुबान नहीं खोली। मौत आई, पर शर्म नहीं आई।”

राजा विक्रमादित्य की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। उन्होंने धीरे से कहा:

“यह सचमुच रत्न है — एक इंसान का हृदय, जो जाति, धर्म, सीमा से ऊपर उठ गया।”


अध्याय 5: आधुनिक युग की गूंज

समय बदला। राजतंत्र खत्म हुआ, लोकतंत्र आया, तकनीक आई, मोबाइल आए, और इंसान भीड़ में गुम हो गया। पर एक पत्रकार, अंशुल, जो प्रेमचंद की कहानी पर डॉक्यूमेंट्री बना रहा था, उसने इस प्राचीन कथा के आधार पर दुनिया के “अनमोल रत्न” की तलाश शुरू की। वह अस्पतालों, जेलों, स्कूलों, सैनिक कैम्पों में गया। वह जानना चाहता था — क्या आज भी अब्दुल जैसे लोग हैं?

एक दिन उसे एक सफाईकर्मी मिली — कमला। दिल्ली के एक अस्पताल में सफाई करती थी। कोरोना काल में जब डॉक्टर भाग गए थे, वह अकेली पीपीई किट में मरीजों को खाना खिला रही थी। खुद संक्रमित हुई, लेकिन ड्यूटी नहीं छोड़ी।

अंशुल ने पूछा:

“तुम्हें डर नहीं लगा? मर जाओगी तो?”

कमला हँसी, “साहब, हम तो रोज़ मौत से लड़ते हैं। पर जब कोई बुजुर्ग कहता है — बेटी, तूं ना होती तो हम मरे जाते — वही मेरी दौलत है।”


अध्याय 6: आईने में इंसान

अंशुल ने कमला की तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली — कुछ लोग भावुक हुए, कुछ ने कहा: ‘वाह! असली हीरो।’ पर कुछ ने कमेंट किया:

“अरे! ये भी कोई कहानी है? ये तो सिर्फ झाड़ूवाली है।”

अंशुल ने तब प्रेमचंद की पंक्तियाँ याद कीं — “रत्न वह नहीं जो चमके, रत्न वह है जो अंधेरे में भी रोशनी दे।”

आज जब हम महंगी गाड़ियों, विदेशी ब्रांड्स और इंस्टाग्राम लाइक्स को मूल्य का प्रतीक मानते हैं, तब यह कहानी हमें झकझोरती है — रत्न हमारे आसपास हैं, पर हमें देखने की दृष्टि चाहिए।


अध्याय 7: अंतिम मुलाकात

अंशुल ने उस पुरानी डायरी को एक प्रदर्शनी में रखा। लोग आए, फोटो खींची, इंस्टा स्टोरी बनाई। पर एक बूढ़ा आदमी, फटी हुई जूतियों में आया, चुपचाप खड़ा रहा, और फिर धीरे से बोला:

“मैं अब्दुल का पोता हूं। दादा ने कभी फोटो नहीं खिंचाई, नाम नहीं चाहा। पर उनके शब्द आज भी जलते हैं — जैसे दीपक।”

अंशुल ने झुककर उसे प्रणाम किया। भीड़ के बीच उस दिन दो ही आंखें नम थीं — एक अंशुल की, दूसरी उस बूढ़े की।


उपसंहार: रत्न की पहचान

हम रत्नों को संग्रहालय में ढूंढ़ते हैं, महलों में, ऊंची इमारतों में — पर वे रहते हैं चौराहों पर, गलियों में, स्कूल की टपकती छतों के नीचे, बूढ़े पिता की कांपती उंगलियों में, और उस मां की आंखों में जो मजदूरी करके बेटे को इंजीनियर बनाती है।

प्रेमचंद की मूल कहानी में राजा विक्रमादित्य ने उस रत्न को पहचान लिया था। आज हमारी परीक्षा है — क्या हम भी पहचान पाएंगे?

अगर नहीं, तो यकीन मानिए, हम खो देंगे — दुनिया का सबसे अनमोल रत्न।


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