ग़ुब्बारे पर चीता (आधुनिक रूपांतरण)
लेखक: सतेंद्र
भूमिका:
ये कहानी सिर्फ एक चीते की नहीं, बल्कि हमारी उस सोच की भी है जो रंग-बिरंगे सपनों की चकाचौंध में वास्तविकता की ज़मीन को भूल जाती है। ये व्यंग्य है, मगर केवल हँसाने के लिए नहीं। इसमें वे आहें भी हैं जो उस समाज की गलियों में गूंजती हैं, जहाँ सपनों के गुब्बारे अक्सर फट जाते हैं और सच का नंगा बदन सामने आ जाता है।
भाग 1: मेला़, ग़ुब्बारे और उम्मीदें
गाँव की मिट्टी में आज कुछ अलग सी सुगंध थी। हर चेहरे पर एक अनोखा उत्साह, हर आँख में चमक। सालाना मेला लगा था। चटपटे गोलगप्पों से लेकर जादू के खेल, और गंधाती भुनी मकई तक—हर कोना किसी जादू से कम नहीं था।
छोटा बच्चा सोनू अपने पापा की उंगली थामे झूले की लाइन में खड़ा था। उसकी नज़र अचानक एक चमचमाते ग़ुब्बारे वाले पर पड़ी। लाल, नीले, पीले, और हरे रंगों के गुब्बारे जैसे आकाश की बाँहों में समा जाना चाहते थे। सोनू की आँखें वहीं अटक गईं।
“पापा, वो वाला चीते वाला गुब्बारा चाहिए!”
उसने उंगली से इशारा किया एक खास ग़ुब्बारे की ओर—जिसमें एक गरजता हुआ चीता था, मानो वो गुब्बारे से निकलकर दौड़ने ही वाला हो।
पिता ने जेब टटोली। कुछ सिक्के खनके, मगर उस गुब्बारे की कीमत उन सिक्कों से थोड़ी ऊँची थी।
“बेटा, वो थोड़ा महँगा है। चल, दूसरा ले लो,” उन्होंने समझाने की कोशिश की।
पर बच्चे की आँखों में आँसू आ गए, जैसे उसके सपनों के गुब्बारे में किसी ने सुई चुभो दी हो।
“ठीक है, ला देते हैं,” पिता ने हार मान ली, मगर आँखों में एक बेचैनी थी। जेब खाली होने का दुःख, बेटे की मुस्कान से छोटा लग रहा था।
ग़ुब्बारा मिला। सोनू की खुशी आसमान छू गई। लेकिन… ये कहानी यहाँ खत्म नहीं होती।
भाग 2: हवा में उड़ता घमंड
ग़ुब्बारे पर बना चीता मानो हवा में गुर्राता हुआ उड़ रहा था। पूरे मेले में सोनू जैसे विजेता की तरह घूम रहा था। दूसरे बच्चे हैरानी से उस ग़ुब्बारे को देखते और अपने माँ-बाप से वैसा ही माँगने लगते।
देखते ही देखते, उस ग़ुब्बारे वाला सबसे लोकप्रिय हो गया। वो हँस रहा था, बेच रहा था, और नोट गिन रहा था। बाकी ग़ुब्बारे अब नीरस लगने लगे थे—क्योंकि अब सबको वही चीते वाला ग़ुब्बारा चाहिए था।
सड़क किनारे बैठा बूढ़ा ग़ुब्बारे वाला, जो सिर्फ छोटे-छोटे गुब्बारे बेचता था, उदास हो गया। उसके पास चीता नहीं था। उसके पास तो केवल साधारण रंग थे।
“अब कौन खरीदेगा मेरे गुब्बारे? सबको तो सिर्फ चीता चाहिए।”
उसकी आवाज़ में तुर्शी थी, मगर आँखों में थकान।
भाग 3: एक दिन जब गुब्बारा फूटा
सोनू का गर्व से भरा चेहरा, ग़ुब्बारे की रस्सी को मजबूती से थामे हुए, पूरे मोहल्ले में घूम रहा था। वो चीता अब उसके लिए सिर्फ एक खिलौना नहीं था—वो उसका दोस्त, उसका अभिमान बन चुका था।
फिर एक दिन… कुछ अजीब हुआ।
तेज़ धूप थी। सोनू अपने ग़ुब्बारे को लेकर निकला। तभी एक नुकीली टहनी से टकरा गया उसका ग़ुब्बारा।
“फट!”
एक पल में चीता हवा हो गया। सोनू स्तब्ध रह गया। जैसे किसी ने उसके भीतर की आत्मा खींच ली हो। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी खामोशी थी, आँखें खाली।
गाँव के अन्य बच्चे धीरे-धीरे मुस्कराने लगे।
“देखो, उसका चीता फूट गया। अब वो भी हमारे जैसा हो गया।”
भाग 4: आत्ममंथन का क्षण
रात को पिता ने देखा, सोनू चुपचाप बैठा है। न रो रहा, न खेल रहा। जैसे किसी ने उसके अंदर कुछ तोड़ दिया हो।
“बेटा, ग़ुब्बारा था। फूट गया। नया ले लेंगे।”
पर सोनू ने सिर हिलाया।
“पापा, वो चीता असली नहीं था ना? असली चीते तो जंगल में होते हैं। हवा भरकर कुछ भी बड़ा दिखाया जा सकता है। वो मजबूत नहीं था, बस बड़ा था।”
पिता को लगा जैसे उनके बेटे ने जीवन का सबसे बड़ा पाठ सीख लिया हो।
भाग 5: गाँव की सच्चाई और समाज पर व्यंग्य
गाँव का माहौल भी बदल रहा था। अब हर चीज़ में दिखावे की होड़ थी।
पंचायत का चुनाव आया। एक प्रत्याशी ने अपने पोस्टर पर वही चीते वाला चित्र छपवा दिया।
“मैं हूँ गाँव का चीता, जो सबकी रक्षा करेगा।”
लोग तालियाँ बजाते। भीड़ जुटती। मुफ्त में गुब्बारे बँटते, चाय-नाश्ता होता।
बूढ़ा ग़ुब्बारे वाला हँस पड़ा।
“देखो, अब राजनीति में भी गुब्बारे हैं। हवा भरो, उड़ा दो, फटने तक इंतज़ार करो।”
एक लड़का खड़ा होकर चिल्लाया:
“ये सब झूठे गुब्बारे हैं! असली काम तो वो करता है जो शोर नहीं करता!”
भाग 6: उम्मीद की नई सुबह
सोनू अब बड़ा हो गया था। अब वह गाँव के स्कूल में पढ़ाता था। उसने बच्चों को ग़ुब्बारों से नहीं, किताबों से दोस्ती करना सिखाया। वो कहता,
“हर ग़ुब्बारे की हवा निकालो, देखो अंदर क्या है। अगर कुछ नहीं है, तो समझो, वो सिर्फ दिखावा था।”
बच्चे हँसते, सीखते, और चीते को सिर्फ जंगल का जानवर मानते—not समाज का प्रतीक।
गाँव में फिर मेला लगा। लेकिन इस बार सोनू ने बच्चों को सिखाया,
“ग़ुब्बारे उड़ाओ ज़रूर, मगर उनके पीछे मत भागो। सच की ज़मीन को कभी मत छोड़ो।”
उपसंहार:
ग़ुब्बारे पर चीता केवल एक प्रतीक था—उस समाज का, जहाँ हवा से बनाए गए भ्रम अक्सर हमारी सोच पर हावी हो जाते हैं। मगर जैसे-जैसे चीता फूटता है, वैसे-वैसे हम असलियत से जुड़ते हैं।
सोनू की कहानी हमें यही बताती है—सपने देखो, मगर सच की ज़मीन मत छोड़ो। हर गुब्बारे के पीछे मत भागो, क्योंकि कुछ गुब्बारे बस रंगीन होते हैं, मजबूत नहीं।
लेखक: सतेंद्र