“मित्रता का असली मूल्य तब समझ में आता है, जब दुनिया स्वार्थ से भर जाती है और एक नादान दिल बिना शर्त प्यार लुटा देता है।”
प्रस्तावना
कहानी का बीज मुंशी प्रेमचंद ने बोया था – छोटा सा, पर गहराइयों से भरा हुआ। पर समय बदल गया है, शहर बदल गए हैं, बच्चे स्मार्टफोन चलाने लगे हैं, पर कुछ भावनाएँ वैसी की वैसी हैं – मासूम, निश्छल और दिल को छू लेने वाली। आज मैं वही बीज उठाकर एक नई ज़मीन में बोने चला हूँ – ताकि उसकी जड़ें आज के पाठकों के दिलों में भी जगह बना सकें।
अध्याय 1: शहर की भीड़ और अकेलापन
शहर में एक पुराना मोहल्ला था – छतों से झाँकती पतंगें, गलियों में दौड़ते बच्चे, दीवारों से टकराती गेंदें और मोहल्ले की वह पुरानी पनवाड़ी की दुकान, जहाँ बैठकर बूढ़े शाम की राजनीति पर बहस किया करते थे।
इसी मोहल्ले की एक पुरानी कोठी में रहता था सौरभ – दस साल का दुबला-पतला, साँवला बच्चा, आँखों में शरारत का सागर और दिल में सूनापन। उसके माता-पिता नौकरी के कारण सुबह से रात तक व्यस्त रहते। मोबाइल, टीवी, गेम – सब कुछ था, पर साथ खेलने वाला कोई नहीं।
एक दिन गर्मियों की दोपहर थी, सौरभ अपने आँगन में बैठा आम की गुठली चूस रहा था। उसी वक्त उसकी नज़र सामने के घर की टूटी दीवार पर पड़ी – एक छोटा, हड्डियों का ढांचा-सा कुत्ता उस दीवार की ओट से झाँक रहा था।
कुत्ता देख कर डर नहीं लगा, न घृणा हुई… बल्कि एक हल्की मुस्कान आ गई चेहरे पर।
“अरे ओए… भूखा है क्या?” उसने आम की गुठली उछाल कर उसकी तरफ फेंकी।
कुत्ते ने सूंघा, फिर खा गया। आँखों में वह शुक्रिया था जो इंसानों की दुनिया में अब किताबों में ही मिलता है।
अध्याय 2: नादान दोस्त की शुरुआत
अगले दिन फिर वही कुत्ता आया। सौरभ ने आज रोटी फेंकी। फिर दिन-ब-दिन यह क्रम बढ़ता गया। वह दीवार के उस पार आता, पूँछ हिलाता, कभी भौंकता नहीं, न ही पास आने की ज़िद करता। जैसे समझता हो, बच्चा डरे नहीं।
एक दिन सौरभ ने पहली बार आवाज़ दी – “क्या नाम है तेरा? अच्छा… मैं ही रख देता हूँ – ‘भोला’!”
भोला अब उसका दोस्त बन चुका था। सुबह स्कूल जाने से पहले दूध का कटोरा रख देता, और शाम को आते ही आवाज़ लगाता – “भोला… आ जा!”
माँ ने टोका, “ये आवारा कुत्ता है बेटा, कहीं काट लिया तो?”
“माँ, ये बहुत शरीफ है… ये काटेगा नहीं, बस दोस्ती करता है।”
माँ मुस्कुराई – “कभी किसी इंसान से भी इतनी दोस्ती की है तूने?”
सौरभ चुप हो गया।
अध्याय 3: भोला और मासूमियत
भोला सचमुच अलग था। बारिश में भीगता तो सौरभ उसके लिए पुरानी गत्ते की छत बना देता। धूप में बैठा मिलता तो पानी का बर्तन रख आता।
मोहल्ले के कुछ लोग खफा होने लगे – “अरे बच्चा बिगड़ रहा है, नाली का कुत्ता पाल लिया है।”
पर सौरभ नहीं रुका।
एक दिन की बात है – सौरभ के स्कूल की किताबें चोरी हो गईं। पिता ने डाँटा, माँ ने रोया – “कहीं गिरवी तो नहीं रख दी खेलने के लिए?”
पर उसी रात भोला अपने मुँह में एक पुराना फटा बैग दबाकर लाया, और सौरभ के दरवाज़े पर रख गया। बैग के अंदर वही किताबें थीं।
अचरज! कैसे मिल गईं उसे? कहाँ से लाया? कोई जवाब नहीं, बस भोला की पूँछ की हल्की हिलाहट और आँखों में चमक।
अध्याय 4: ज़िन्दगी की पहली चोट
पर हर कहानी में एक मोड़ आता है।
मोहल्ले में नए पार्षद का आना हुआ। सौंदर्यीकरण के नाम पर आदेश निकला – सभी आवारा कुत्ते पकड़ लिए जाएँगे।
नगरपालिका की गाड़ी आई, डंडों वाले लोग उतरे। मोहल्ले के बच्चे भागे, जानवर चीखे।
भोला भी पकड़ा गया।
सौरभ दौड़ा, पर गेट पर माँ ने पकड़ लिया – “रुक जा सौरभ… कुछ नहीं कर सकता तू!”
वह फूट-फूटकर रोया।
उस रात सौरभ के कमरे की खिड़की से उसकी आँखें खुली रहीं… उसे लग रहा था जैसे कोई दूर जंगल में उसे पुकार रहा हो – “भोला…”
अध्याय 5: दोस्ती का असली मतलब
दूसरे दिन सौरभ ने कुछ नहीं खाया। स्कूल गया, पर कुछ सुना नहीं। शाम को जब लौट रहा था, उसकी नज़र सड़क के उस पार कूड़ेदान के पास गई – वही भूरे रंग की पूँछ, लँगड़ाता हुआ कुत्ता, बुरी हालत में।
“भोला!” सौरभ चीखा।
कुत्ता सिर उठाकर देखता है, जैसे पहचान रहा हो… और फिर धीमे-धीमे उसकी ओर आने लगा। पर दो कदम बाद गिर पड़ा।
सौरभ दौड़ा, अपने स्कूली बैग से पानी की बोतल निकाली, मुँह में डाला, माथा सहलाया – “मैं आ गया भोला… छोड़ के नहीं जाऊँगा।”
उस दिन सौरभ पहली बार अकेला नहीं था। वो भी नादान था, और उसका दोस्त भी।
अध्याय 6: माँ का परिवर्तन
सौरभ ने भोला को चादर में लपेटा, घर लाया। माँ का चेहरा पहले गुस्से से लाल था।
“पागल हो गया है क्या? ये घर में नहीं रहेगा।”
पर जब उसने देखा कि सौरभ ने खाना नहीं खाया, उसकी आँखें भीग गईं।
“ठीक है… एक रात… बस एक रात।”
पर एक रात दो हुई, दो हफ्ता बना, और फिर भोला घर का हिस्सा बन गया।
अध्याय 7: मोहल्ले की व्यंग्यपूर्ण दुनिया
अब मोहल्ला ताने मारता – “पढ़ाई छोड़ कुत्ता पाल रहा है… बड़ा होकर क्या बनेगा – डॉग ट्रेनर?”
कोई कहता – “अरे उसके माँ-बाप का पैसा है, शौक से आवारा पालता है।”
पर किसी ने ये नहीं देखा कि भोला ने सौरभ को इंसान बनाया। वह अब झूठ नहीं बोलता था, गुस्सा नहीं करता, और हर किसी से प्रेम से पेश आता।
भोला अब केवल एक जानवर नहीं था – वह सौरभ की आत्मा में बस गया था।
अध्याय 8: समय का फेर
समय बीतता गया।
सौरभ अब 16 साल का हो गया। अब वह मोबाइल पर रील नहीं, किताबों पर ध्यान देने लगा था। स्कूल में अव्वल आने लगा। उसकी प्रेरणा? भोला।
भोला अब बूढ़ा हो चुका था। बाल सफेद, आँखें धुँधली, लेकिन एक चीज़ वही थी – उसकी दोस्ती।
एक शाम, जब सौरभ ट्यूशन से लौटा, भोला वहीं दरवाज़े पर पड़ा था – पर साँसें धीमी थीं।
“भोला?” वह झुका।
भोला ने सिर उठाया, सौरभ की हथेली को अपनी जीभ से छुआ… और हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं।
अध्याय 9: विदाई और वादा
उस दिन सौरभ ने किसी से बात नहीं की। अगले दिन वो गड्ढा खोदकर खुद भोला को दफनाने गया।
उसने मिट्टी में एक छोटा पत्थर रखा – जिस पर उसने खुद लिखा:
“यहाँ सोया है मेरा सबसे सच्चा दोस्त – भोला।”
अध्याय 10: एक ब्लॉग, एक सीख
सालों बाद, सौरभ एक सफल लेखक बन चुका था। जब उसके ब्लॉग पर लाखों लोग उसकी कहानियाँ पढ़ते थे, तो एक दिन उसने एक पोस्ट डाली – “नादान दोस्त – मेरी पहली कहानी, मेरी पहली प्रेरणा।”
और उस पोस्ट के अंत में लिखा:
“कभी किसी कुत्ते से दोस्ती की है? नहीं? तो आपने दोस्ती का असली मतलब अब तक जाना ही नहीं।”
उपसंहार:
मुंशी प्रेमचंद की कहानी “नादान दोस्त” एक बीज थी – जो आज की दुनिया में भी उतनी ही प्रासंगिक है। जब स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ में हम सच्चाई और मासूमियत भूल जाते हैं, तब एक भोला-सा दोस्त हमें फिर से इंसान बना देता है।
लेखक: सतेन्द्र
(यदि यह कहानी आपकी आत्मा के किसी कोने को छू गई हो, तो ज़रूर साझा करें… क्योंकि शायद कहीं किसी सौरभ और भोला की कहानी अब भी शुरू होने वाली है।)