नशा: एक नई कहानी – Satendra द्वारा
(मुंशी प्रेमचंद की मूल कहानी पर आधारित एक आधुनिक व्याख्या)
प्रस्तावना:
“नशा सिर्फ शराब का नहीं होता, पद, प्रतिष्ठा, जाति, घमंड, पैसा, सब नशा ही तो हैं… फर्क बस इतना है कि एक बोतल में मिलता है और दूसरा विचारों में।”
यह कहानी है दो विचारधाराओं की, दो पीढ़ियों की, दो व्यक्तियों की। एक तरफ है राजेन्द्र, जो खुद को नवयुग का दीपक मानता है और दूसरी ओर हैं ठाकुर हरिहर सिंह, जो परंपराओं के प्रहरी बन बैठे हैं। दोनों ही नशे में हैं — फर्क सिर्फ इतना है कि एक का नशा ज़ाहिर है और दूसरे का छुपा हुआ।
अध्याय 1: जागरूकता का बीज
राजेन्द्र एक पढ़ा-लिखा, तेज-तर्रार नौजवान था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी.ए. की डिग्री लेकर गांव लौट आया था। गांव का नाम था गौरीपुर, जहां बदलाव की आहट सिर्फ अखबारों में मिलती थी, ज़मीनी हकीकत अब भी सड़ी-गली परंपराओं में जकड़ी थी।
गांव के ठाकुर हरिहर सिंह ज़मींदार थे — ईंट से ईंट बजा देने वाले किस्म के, जिनके हुक्म के बिना गांव में पत्ता भी नहीं हिलता। उन्हें लगता था कि वे गांव के ‘वास्तविक पिता’ हैं और बाकी सब उनके बच्चे। लेकिन यह भ्रम अब टूटने लगा था।
राजेन्द्र ने लौटते ही गांव में एक पुस्तकालय, एक शिक्षा केंद्र और एक युवा समिति की स्थापना की। युवाओं को किताबें पढ़ने को दी, स्त्रियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया। ठाकुर साहब को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था।
“ये लौंडा तो पूरा गड़बड़ कर देगा,” ठाकुर साहब ने अपने मुख्तार से कहा।
“हुकुम, हम समझा देंगे। ठाकुर का गांव है, कोई कलम का कीड़ा हमें बताने नहीं आएगा कि क्या सही है,” मुख्तार ने मक्कारी से जवाब दिया।
अध्याय 2: विचारों की टकराहट
एक दिन ठाकुर हरिहर सिंह ने राजेन्द्र को बुलवाया।
“राजेन्द्र बाबू, सुनो, ये जो तुम पढ़ाई-लिखाई का खेल खेल रहे हो, ये सब शहर में चलता है। गांव में ये सब ढकोसले नहीं चलते। यहां मर्द अपने खेत से और औरत अपनी चौखट से जुड़ी है।”
राजेन्द्र मुस्कराया, उसकी आंखों में न तो डर था और न ही विनम्रता — बस एक सच्चा आत्मविश्वास था।
“ठाकुर साहब, खेत से जुड़ाव में कोई बुराई नहीं, लेकिन जहालत से जुड़ाव तोड़ना ज़रूरी है। औरत को भी इंसान समझिए, सिर्फ ‘देह’ नहीं।”
ठाकुर की आंखें लाल हो गईं। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि कोई उनकी सत्ता को चुनौती दे रहा है। लेकिन वे चुप रहे। असल में वे राजेन्द्र से डर गए थे।
अध्याय 3: नशा और प्रतिष्ठा
ठाकुर साहब को अपनी इज्ज़त का नशा था। राजेन्द्र को अपनी विचारधारा का। दोनों एक-दूसरे को कमतर समझते थे।
ठाकुर को लगता था, “ये नौजवान तो बस किताबों के पन्नों में उड़ता है, जमीन की हकीकत नहीं जानता।”
और राजेन्द्र सोचता, “ये ज़मींदार तो सिर्फ अपनी मूंछों की लकीरों में जीता है, इंसानियत तो देख ही नहीं पाता।”
गांव में एक दिन सभा रखी गई। विषय था — “गांव की स्त्रियों की शिक्षा में पुरुषों की भूमिका”।
सभा में राजेन्द्र के बोलने का अंदाज़ तीखा था, पर सच्चा।
“आज अगर हम अपने गांव की स्त्रियों को स्कूल नहीं भेजते, तो कल वो हमें इंसान नहीं, जानवर कहेंगी। घर की चारदीवारी नहीं, शिक्षा की दीवार उन्हें मजबूत बनाएगी।”
ठाकुर खड़ा हुआ — “हमारे जमाने में औरतें पर्दे में रहती थीं। आज ये लोग उन्हें सड़क पर ले आना चाहते हैं। ये संस्कृति का नाश है!”
सभा में सन्नाटा था। युवा राजेन्द्र की आंखों में आंसू थे, मगर क्रोध से नहीं, दया से।
“ठाकुर साहब, पर्दा शरीर से नहीं, सोच से उठना चाहिए।”
अध्याय 4: सच्चाई की सजा
राजेन्द्र के विचार गांव में फैलने लगे। युवाओं का झुकाव उसकी ओर हो रहा था। ठाकुर की सत्ता हिलने लगी थी।
एक दिन राजेन्द्र को गांव की सभा में बुलाया गया। ठाकुर की चाल थी।
“तुम्हारे खिलाफ शिकायत है कि तुम गांव की बहुओं को बिगाड़ रहे हो।”
राजेन्द्र शांत रहा।
“तुम्हारे खिलाफ सबूत है?”
“सबूत तो यह है कि रमेश की बेटी कविता अब स्कूल जाती है। क्या यह गुनाह है?”
सभा चुप। ठाकुर की मूंछे तन गईं।
“अगर यह गुनाह है, तो मैं हर दिन करूंगा,” राजेन्द्र ने ठोस आवाज़ में कहा।
तुरंत पंचायत ने निर्णय सुनाया — “राजेन्द्र गांव की मर्यादा तोड़ रहा है। उसे गांव से निष्कासित किया जाता है।”
राजेन्द्र ने गांव छोड़ा, लेकिन विचार नहीं। उसने पड़ोसी गांव शिवपुर में जाकर अपना काम शुरू किया। वहां उसने लड़कियों का स्कूल खोला, पुस्तकालय फैलाया, और सबसे अहम — बदलाव की लौ जलाई।
गौरीपुर में धीरे-धीरे जागरूकता फैलने लगी। रमेश की बेटी कविता अब गांव की पहली महिला शिक्षक बनी। युवा अब ठाकुर की सभा से कटने लगे। बूढ़े भी धीरे-धीरे सवाल करने लगे — “हम कब तक दूसरों के डर में जीएंगे?”
अध्याय 6: आत्मा की हार
ठाकुर की तबियत बिगड़ने लगी। वे दिन भर खांसते और रात भर सोचते — “मैंने क्या खोया? क्या यही मेरा धर्म था? क्या यही मेरी इज्जत थी?”
एक दिन ठाकुर ने अपने पुराने मुख्तार को बुलाया — “राजेन्द्र को बुलवाओ। मुझे उससे माफी मांगनी है।”
मुख्तार ने हिम्मत की — “ठाकुर साहब, वो तो अब हमारे गांव में नहीं आता।”
ठाकुर बोले — “तो मैं चलूंगा।”
गांव वालों ने देखा — उनके ठाकुर साहब, जो कभी पालकी से उतरते नहीं थे, अब लाठी के सहारे शिवपुर जा रहे हैं। आंखों में पछतावे का नशा, और चेहरे पर थकान का नकाब।
अध्याय 7: माफी और मुक्ति
ठाकुर शिवपुर पहुंचे। राजेन्द्र उस समय स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहा था।
ठाकुर लाठी टेकते हुए खड़े रहे। बच्चे भाग कर अंदर आए — “गुरुजी! एक बूढ़े बाबा आपको बुला रहे हैं।”
राजेन्द्र बाहर आया, और देखा — उनका विरोधी अब लाचार खड़ा है।
“राजेन्द्र, मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हारे नशे को गलत समझा। लेकिन अब समझ आया — सच्चा नशा वही है जो आदमी को आदमी बनाए।”
राजेन्द्र की आंखों में आंसू थे। उसने ठाकुर का हाथ थामा और कहा — “ठाकुर साहब, माफ करने के लिए कुछ होना चाहिए… आपने तो मुझे एक नई शुरुआत दी थी।”
समापन: नशा जो उतरे तो इंसान बने
“नशा सिर्फ शराब का नहीं होता। जब सच्चाई का नशा चढ़ता है, तो आदमी पत्थर भी तोड़ सकता है और दीवारें भी। लेकिन जब अहंकार का नशा चढ़ता है, तो आदमी खुद टूट जाता है।”
राजेन्द्र और ठाकुर अब दो पीढ़ियों के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि दो आत्माएं थे — एक बदलाव की मशाल, दूसरी स्वीकार की आग।
गांव में शिक्षा, समता और विचारधारा की नयी धारा बह निकली थी। ठाकुर हरिहर सिंह की मृत्यु एक साल बाद हुई, लेकिन उनकी वसीयत थी — “मेरी सारी ज़मीन पर एक महिला कॉलेज बने।”
गांव वालों ने यह सपना पूरा किया। और कॉलेज का नाम रखा गया — “राजेन्द्र-स्मृति महिला महाविद्यालय”।
लेखक: Satendra
(समर्पित मुंशी प्रेमचंद को — जिनके विचार आज भी समाज के लिए मशाल हैं)