पंचायत सहायक: गाँव का अफसर, जेब का फकीर… एक अधूरी सच्चाई

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लेखक की कलम से

यह उपन्यास मेरे उन जज़्बातों की अभिव्यक्ति है जो मैंने गाँव-गाँव घूमते हुए, पंचायत भवनों की खामोश दीवारों से महसूस किए। यह कहानी सिर्फ पंचायत सहायक – विवेक की ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के उन हज़ारों युवा पंचायत सहायकों की है जो सरकारी मुहर लेकर भी अपने भविष्य को लेकर असहाय हैं।
मैंने इसे सिर्फ एक कहानी की तरह नहीं, बल्कि अपने दिल के दर्द को कागज़ पर उतारकर लिखा है।
आशा करता हूँ कि यह सच्चाई आपके दिल को छू जायेगी।

~सतेन्द्र 

अध्याय 1: एक अफसर की अधूरी कहानी

घड़ी की टिक-टिक रात भर विवेक की नींद चुराती रही।

कमरे में बस सन्नाटा था, जहाँ दीवार पर टंगा हुआ एक पुराना कैलेंडर मौन खड़ा था, और बगल में टंगी नेहा की एक हल्की मुस्कान भरी तस्वीर — जो अब भी उसके बीते दिनों की कहानी कहती थी।
उस तस्वीर की मुस्कान जैसे उसकी बेचैनी की चुप साक्षी बन गई हो।

सुबह का दृश्य –

माँ सरस्वती देवी तुलसी में पानी डाल रही थीं।
उनके हाथों में थकान थी, आँखों में दुआएँ।
हर बूँद जो तुलसी पर गिरती, मानो विवेक के रास्तों को आसान करने की प्रार्थना बन जाती।

आँगन में चाँदनी, झाड़ू से फर्श बुहारती, लेकिन नज़रें उन किताबों पर अटक जातीं जिन्हें कभी वक़्त नहीं मिला — न पढ़ने का, न जीने का।

भीतर बैठा विवेक पूजा करता है, फिर माँ के पैर छूता है, और कोने से उठाता है अपना अफसराना बैग — एक पुराना ब्राउन सरकारी फाइल बैग, जो अब उसकी पहचान बन चुका है।

उस बैग में समाई होती है एक पूरी जिम्मेदारियों की दुनिया

  • सरकारी फॉर्म,
  • कुछ ज़रूरी दस्तावेज़,
  • एक निजी डायरी,
  • और कुछ नीली-लाल स्याही वाली कलमें।

हर चीज़ जैसे उसकी ज़िम्मेदारी की गवाही देती हो।

वह अपनी TVS स्पोर्ट बाइक के पास पहुँचता है —
जिसे उसने किस्तों में खरीदा था, हर किस्त एक कुर्बानी।
₹50 का पेट्रोल डलवाता है, और मन में उठता है वही डर:

“कहीं रास्ते में बंद ना हो जाए…”

लेकिन फिर भी, वो चल पड़ता है —
कंधे पर टंगा सरकारी बैग, सीने में भारी उम्मीदें, और आँखों में वो सपना जिसे सिर्फ वही देखता है।

यह कहानी अब शुरू हो चुकी है…
एक अफ़सर की,
जिसकी पहचान बैग में नहीं, जिम्मेदारी में है।

अध्याय 2: अफ़सर सरकारी, बस नाम का

सूरज सिर पर चढ़ आया था।
जून की गर्म दोपहर, तपती सड़कें और उड़ती धूल…
विवेक का चेहरा इन सबका मूक गवाह बना खड़ा था।

उसने माथे का पसीना रुमाल से पोंछा और अपनी पुरानी TVS स्पोर्ट को ब्लॉक परिसर के बाहर खड़ा कर दिया।
कंधे पर टंगा था उसका बैग —
वो बैग, जो न पूरा उसका था, और न पूरी तरह से सरकारी।
पर उसमें बंद थी उसकी पूरी दुनिया… कागज़ों की, सपनों की, जिम्मेदारियों की।

लोहे का गेट धीमे से चरमराया।
गार्ड ने घूरकर देखा और ताना मारा,
“अबे पंचायत सहायक है क्या तू? बड़ी देर कर दी आज!”

विवेक मुस्कराया, जैसे ऐसे तानों की आदत हो चुकी हो।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वो उसी सरकारी गंध से टकराया —
फाइलों की बासी खुशबू, धूल की परतें और थकी हुई दीवारें।
एक ऐसा सिस्टम, जो सालों से वहीं खड़ा था — जड़, बेजान और बोझिल।

कमरे के भीतर सचिव रमेश दुबे, मोबाइल में खोए हुए, चाय के कुल्हड़ से घूंट भरते बोले,
“आ गए महामहिम पंचायत सहायक! चलिए, ये फाइलें ले जाइए गाँव। और सुनिए, अगले सप्ताह ग्राम सभा है — रिकॉर्ड पूरा तैयार रखना। प्रधान जी का नया प्लान भी टाइप करना है, और एक वर्क ऑर्डर बनाना है… वो जो नाली बनी थी…”

विवेक ने धीरे से कहा,
“सर… वो तो बनी ही नहीं।”

दुबे जी ने भौंहें चढ़ाईं —
“बनी हो ना बनी हो… पेपर पर तो बननी चाहिए।”

उसी पल दरवाज़ा धड़ाम से खुला।
गुटखे की गंध के साथ प्रधान बलबीर सिंह कमरे में घुसा —
एक हाथ में मोबाइल, दूसरे में दबंगई।

“विवेक! तू बहुत पढ़ा-लिखा बनता है रे! ज़्यादा ईमानदारी न झाड़, वरना किसी केस में फँसा दूँगा और नौकरी जायेगी सो अलग।
पंचायत सहायक है… लगता है कोई मंत्री बन गया है!”

विवेक खामोश रहा।
उसकी आँखों में एक सवाल धधक रहा था —
“क्या यही सरकारी नौकरी थी, जिसके लिए मैंने सब कुछ दाँव पर लगाया था?”

बैग धीरे-धीरे भारी होने लगा था।
उसने एक-एक फॉर्म निकाले — मनरेगा की लिस्ट, परिवार रजिस्टर, आयुष्मान कार्ड की प्रविष्टियाँ…
हर दस्तावेज़ किसी सरकारी योजना का हिस्सा था,
पर उनमें कहीं “विवेक” नहीं था —
बस एक ‘कर्मचारी’ था।

“वेतन — बस छह हज़ार महीना, कब मिला था, याद नहीं ।

अब कब आएगा? किससे पूछें, सिस्टम भी खामोश है…”

विवेक ने अपनी डायरी के कोने में लिखा —
“रोज़ काम करता हूँ, रोज़ खुद को खोता हूँ।
सम्मान की जगह उपेक्षा मिलती है,
और हर अफसर मुझे नौकर समझता है।
क्या मैं वाकई सिर्फ एक नौकर हूँ,
या फिर एक बेजान अफसर — जो सिर्फ कलम घिसता है?”

शाम ढल चुकी थी।
विवेक बाहर निकला —
पसीने से भीगा, थका, और बैग से झुका हुआ।

और फिर चलते-चलते, मन में एक अंतिम विचार कौंधा —

“मैं अफसर हूँ… नाम का।
असल में तो एक मोमबत्ती हूँ —
जो खुद जल रहा है…
और रौशनी किसी और को दे रहा है।”

अध्याय 3: किताबों के बीच छुपी मोहब्बत

रात के दस बज चुके थे।
कमरे की दीवारें थक चुकी थीं और बल्ब की पीली रोशनी अब टिमटिमा रही थी।
विवेक की आँखों में नींद नहीं, कोई पुराना साया था।
फाइलें एक ओर धरी थीं — चुपचाप।
वो उठा, अलमारी खोली और वहाँ से एक पुरानी डायरी निकाली…
उस डायरी से पन्नों की ख़ुशबू नहीं, बल्कि यादें निकल रही थीं।

“कक्षा 6 की पहली सुबह थी…”
विवेक के ज़हन में एक पुराना स्कूल उतरने लगा।
घंटी बजी थी… और उसी पल वो आई थी —
नेहा।

नेहा — वो लड़की जो ज़्यादा बोलती नहीं थी,
लेकिन उसकी मुस्कान में किताबों से ज़्यादा ज्ञान था।
सफ़ेद यूनिफॉर्म, दो चोटियाँ, आँखों में सादगी, और आवाज़ में एक भोली शरारत।

विवेक हमेशा पीछे की बेंच पर बैठता था, और नेहा सबसे आगे।
जब भी टीचर सवाल पूछते, नेहा जवाब देती…
और विवेक उसे निहारता —
हर जवाब पर थोड़ा और सीधा बैठने लगता।

एक दिन नेहा ने पलटकर पूछा,
“तुम्हारे पास हिंदी की किताब है क्या? मेरी छूट गई घर पर…”

विवेक ने किताब आगे बढ़ा दी —
थोड़ा सकुचाया, थोड़ा मुस्कुराया।
वहीं से शुरू हुआ वो रिश्ता — बिना नाम का।
बिना इजाज़त के, पर हर रोज़ थोड़ा और गहरा होता हुआ।

टिफिन शेयर होने लगे थे,
निजी बातें साझा होने लगी थी,
और होमवर्क में अक्षरों के साथ दिल भी पहचानने लगे थे।

विद्यालय से लौटते समय, दोनों अक्सर एक ही रास्ते से आते।

नेहा कभी-कभी कहती —
“जब तुम बड़े अफ़सर बन जाओगे,
तो मुझे भूल तो नहीं जाओगे ना?”

विवेक मुस्कुराता —
“तुम्हें भूल जाऊं… तो अफ़सर बनने का क्या फ़ायदा!”

लेकिन दुनिया को तो हमेशा कुछ और ही मंज़ूर होता है।

नेहा के पिता स्कूल मास्टर थे —
सीधे, सख़्त और समाज के कायदे-कानूनों के पक्के।

“लड़की की शादी करनी हो तो लड़का सरकारी अफ़सर ही होना चाहिए,
और अच्छी तनख्वाह वाला भी, जो थाठ से रख सके मेरी फूल-सी बेटी को।”

नेहा ख़ामोश रहती थी,
लेकिन उसकी आँखें हर दिन विवेक को पढ़ती थीं —
उस संघर्ष को, जो सिर्फ किताबों से नहीं,
समाज और सिस्टम दोनों से लड़ा जा रहा था।

इंटर के बाद, नेहा को कोचिंग के लिए शहर भेज दिया गया।
विवेक गाँव में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता रहा।

कभी-कभार फ़ोन पर बातें होतीं —
कभी SMS, कभी मिस्ड कॉल… और कभी सिर्फ इंतज़ार।

फिर एक दिन, विवेक का सपना पूरा हुआ —
वह पंचायत सहायक बन गया।

खुशी-खुशी उसने नेहा को फोन किया।
लेकिन फ़ोन किसी और ने उठाया —
नेहा के पिता।

“देखो बेटा, अब तुम दोनों की राहें अलग हैं।
पंचायत सहायक कोई नौकरी थोड़े ही है…
ये तो बस वक़्त काटने का बहाना है।”

विवेक चुप रहा।
कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।
उसने नेहा को आख़िरी मेसेज भेजा —

“नेहा, मैंने तुम्हारे लिए ये नौकरी पाई।
पर शायद ये तुम्हारे लायक नहीं है।
मैं चाहता हूँ कि तुम्हें वो सब मिले,
जो मैं नहीं दे पाया।
मेरी मोहब्बत सच्ची थी…
लेकिन शायद काफ़ी नहीं थी।”

उस रात डायरी के एक पन्ने में नेहा का नाम फिर से दर्ज हुआ —
किताबों के बीच, यादों के कोनों में।

उसकी एक तस्वीर,
वो अब भी रखे हुए है —
उन पन्नों के बीच,
जहाँ वो ज़िंदगी का मतलब खोजता है।

और वो अंतिम एहसास…

“नेहा उसकी मोहब्बत थी —
जो उसके पास थी,
पर उसकी कभी नहीं हो सकी।”

अध्याय 4: पंचायत सहायक की जिम्मेदारियां

सुबह के सात बज चुके थे।
घड़ी की टिक-टिक जैसे विवेक के भीतर चल रही थी।
हर एक पल यही दोहरा रहा था —
“इस महीने भी पैसे नहीं बचे…”

चाय के डिब्बे में रखे ₹120,
बिजली का बिल टेबल पर पड़ा था,
और माँ ने दवा की पर्ची — तकिए के नीचे दबा दी गई थी, जैसे बीमारी को भी कुछ दिनों के लिए चुप बैठने का आदेश दे दिया गया हो।

उस छोटे से घर की दीवारें मिट्टी की थीं, छत टीन की,
और आँगन में तुलसी का पौधा हवा में लहराता था —
जैसे अब भी उम्मीद बची हो।
सरस्वती देवी — गठिया और मधुमेह से पीड़ित माँ,
फिर भी सुबह-सुबह रसोई में खड़ी थीं।

“बेटा, दवा खतम हो गई है… पर तू चिंता मत कर, आज काढ़ा ही पी लूँगी।”

चाँदनी, विवेक की छोटी बहन, सिर झुकाए बोली —
“भैया… मेरी सहेली की शादी अगले महीने है… बाज़ार से मेरे लिए नई चूड़ियाँ ला देना..”

घर की सारी जिम्मेदारी, विवेक के कंधों पर ही तो थी।

विवेक की जेब में सिर्फ ₹140 थे।
उसने कुछ नहीं कहा।

सरकारी कागज़ों में विवेक एक ‘कर्मचारी’ था,
लेकिन उसके बैंक खाते में महीनों से कोई वेतन नहीं आया था।
हर बार सचिव रमेश दुबे यही कहता,
“मानदेय फँसा है, ऑर्डर आएगा तो मिलेगा… वित्त विभाग में फाइल अटकी है।”
और विवेक वही झूठ घर लौटकर दोहराता।

जिम्मेदारियाँ कई थीं, और हर एक उसे थकने नहीं देती थी।
माँ की दवा — ₹750 हर महीने,
बहन की पढ़ाई — जो अब सिर्फ एक सपना रह गई थी,
बिजली का बिल — ₹420,
मोबाइल रिचार्ज — ताकि सरकारी कॉल मिस न हो,
पेट्रोल — विवेक की इज़्ज़त और मोटरसाइकिल दोनों की एक ही टंकी में साँसें चल रही थीं।

“कभी-कभी लगता है ये नौकरी नहीं, किसी की मज़बूरी निभा रहा हूँ मैं…”
उसने यही सोचा और चुपचाप निकल पड़ा।

शाम को माँ ने धीरे से कहा, बेटा..
“अब चाँदनी की शादी के लिए रिश्ते देखने चाहिए।”
विवेक ने सिर झुका लिया —
“माँ… अभी वक्त नहीं है…”

लेकिन किस वक्त का इंतज़ार कर रहा था विवेक?
वो वक्त जब उसके पास इज़्ज़त होगी, जेब में तनख्वाह होगी?
या जब उसका दर्द सरकार की दीवारों से टकराकर वापस न लौटे?

गाँव के लोग कहते —
“सरकारी नौकरी वाला बेटा है सरस्वती का… फिर भी घर में चूल्हा ठंडा है?”
“मोटरसाइकिल है फिर भी बहन के लिए चूड़ी नहीं ला सका?”

कोई नहीं जानता था —
वो मोटरसाइकिल भी किस्तों पर थी,
और पेट्रोल ₹50 से ज्यादा का कभी डलवाया नहीं गया।

कभी जिन दोस्तों के साथ बैठकर सपना देखा था,
अब वो कॉल भी नहीं उठाते।
एक दोस्त ने एक बार कहा था —
“विवेक, तू कहीं उधार माँगने न लग जाए… इसीलिए बात नहीं करता।”

उस रात विवेक माँ की दवा लेने शहर नहीं गया।
बस बहन के लिए एक सस्ती चूड़ियों का सेट खरीद लाया।
घर लौटा तो माँ मुस्कुरा दी —
“बेटा, तू हमेशा कुछ न कुछ कर ही लेता है…”

फिर देर रात, जब सब सो चुके थे, विवेक की नींद… मानो कोसो दूर हो

“गाँव का सरकारी अफ़सर है, पर जेब से फ़कीर है,

विवेक रोज़ लड़ता है — रोटी से, दुनिया से, और ख़ुद की नज़रों से…”

अध्याय 5: अधिकारों की चाह, सम्मान की प्यास

सुबह के 9:10 बज चुके थे।
विवेक ने सफेद कमीज़ पर हल्का-सा इस्त्री फेरकर अपना बैग उठाया,
जिसमें गाँव की बीते छह महीने की मनरेगा, आवास योजना, शौचालय, मृत्यु प्रमाण पत्र और वृद्धावस्था पेंशन की फाइलें ठूँसी पड़ी थीं।

“आज फिर ब्लॉक ऑफिस जाना है… सचिव जी ने सुबह-सुबह ही कॉल कर दी थी।”

दोपहर की चिलचिलाती धूप में,
टीवीएस स्पोर्ट की पुरानी मोटर साइकिल स्टार्ट करते हुए
विवेक के चेहरे पर अफसर जैसी गंभीरता थी —
और एक मज़दूर जैसा पसीना।

ब्लॉक ऑफिस में भीड़ थी —
ग्राम प्रधान, सचिव, जूनियर इंजीनियर, बीडीओ साहब के बाबू…
हर तरफ पहचान थी, परिचय था —
सिर्फ विवेक को कोई नहीं जानता था।

न कोई कुर्सी मिली, न एक गिलास पानी।
वह अपने कागज़ सौंपकर घंटों लाइन में खड़ा रहा —
क्योंकि वह “पंचायत सहायक” था।
सबसे नीचे, सबसे अदृश्य।

सचिव रमेश दुबे ने तीखे स्वर में कहा,
“विवेक! अगर ब्लॉक से रिपोर्ट पेंडिंग रही, तो तेरे ही खिलाफ नोटिस आ जाएगा।
आज आवास की तीसरी किस्त भी फीड करनी है। और हाँ, SDM साहब के दौरे की तैयारी भी…”

विवेक बस सिर हिलाता रहा,
जैसे अफसर नहीं, मज़दूर हो —
पर मजबूरी थी, इसलिए चुप रहा।

एक कंप्यूटर पर सौ काम थे उसके हिस्से।
शौचालय निर्माण की ऑनलाइन फीडिंग,
मनरेगा मजदूरों की उपस्थिति,
प्रधान और सचिव के यात्रा भत्ते की फाइलें,
जनसेवा केंद्र से मतदाता सूची जोड़ना,
ग्राम सभा का वीडियो बनाकर अपलोड करना,
BDO की रिपोर्टिंग…
और बदले में?

ना तनख्वाह, ना नौकरी के स्थायित्व की गारंटी।

कभी-कभी लगता जैसे वह नौकरी नहीं कर रहा —
बल्कि किसी अंतहीन भूलभुलैया में खुद को घसीट रहा है।

एक दिन BDO साहब ने ताना मारा —
“पंचायत सहायक क्या होता है? डाटा एंट्री ऑपरेटर?”

पूरे ऑफिस में ठहाका गूँज उठा…
और विवेक चुपचाप अपना बैग बंद करता रहा।

उसका मन भीतर ही भीतर कुछ कह रहा था —
“मैं गाँव का अफसर कहलाता हूँ —
लेकिन यहाँ तो पहचान भी नहीं है मेरी…
जिस कुर्सी पर बैठता हूँ, वो भी मेरी नहीं है।
और जिस फाइल पर दस्तखत करता हूँ,
उसका फैसला कोई और करता है।”

शाम होते-होते जब वो ब्लॉक से बाहर निकला,
उसकी आँखों में थकान से ज़्यादा खालीपन था।

सड़क से गुजरती चमचमाती कारों को देख कर सोचता —
“कितना अच्छा होता, अगर मेरी भी नौकरी ऐसी होती —
एक पहचान, एक तनख़्वाह, और थोड़ा इज़्ज़त।”

पर वो तो पंचायत सहायक था —
जो नौकरी से ज़्यादा, व्यवस्था की सहनशीलता से बंधा हुआ था।

और फिर… एक चुप्पी के साथ,
विवेक ने खुद से कहा —

“मेरा युद्ध कुर्सी के लिए नहीं, इज़्ज़त के लिए है,

जहाँ तन्ख़्वाह कम, मगर ज़ख़्म बेइंतहा मिलते हैं…” 

अध्याय 6: एक अधूरी मोहब्बत की वापसी

सुबह के सात बज चुके थे।
सूरज अपनी पहली किरणें फैलाने लगा था, और विवेक ब्लॉक की मीटिंग के लिए तैयार हो रहा था।
उसका बैग तैयार था — फाइलों, आवेदनों और सरकारी हुक्मनामों से भरा हुआ, जैसे हर दिन की तरह आज भी वह अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अपने कंधे पर लादने जा रहा हो।

किचन से रोटी की हल्की-सी खुशबू आ रही थी।
चांदनी स्कूल के लिए अपनी यूनिफॉर्म प्रेस कर रही थी।
हर सुबह की तरह यह सुबह भी सामान्य ही लग रही थी,
पर तभी —
घर में टेबल पर रखा फोन अचानक बज उठा…
ट्रिंग ट्रिंग… ट्रिंग ट्रिंग…

चांदनी ने फोन उठाया —
“हेलो?”

दूसरी ओर से एक धीमी, कांपती हुई आवाज़ सुनाई दी —
“विवेक… है?”

चांदनी थोड़ा चौंकी।
“भइया! आपके लिए कानपुर से किसी का कॉल है… लड़की है… नाम नहीं बताया…”

विवेक के हाथ से चाय का कप लगभग छूट गया।
उसका शरीर जैसे सुन्न हो गया हो।
उसने कांपते हाथों से फोन उठाया —
“हेलो…”

“हैलो विवेक…”

बस दो शब्द…
और जैसे समय वहीं थम गया।
कमरे की हवा रुक गई, दिल की धड़कनें पुराने स्कूल की घंटी जैसी सुनाई देने लगीं।
उस आवाज़ में वो कंपकंपी थी, जो वर्षों बाद किसी पुराने ज़ख्म के सहलाए जाने से आती है।

“नेहा…?” उसने काँपती आवाज़ में पूछा।
“हाँ…”
“बहुत साल बाद… लेकिन दिल अब भी वहीं है… जहाँ छोड़ा था।”

…और उस पल, जैसे सब कुछ लौट आया —
वो स्कूल की पगडंडी… वो एक छतरी… आखिरी परीक्षा का दिन…
नेहा की आँखें… और विवेक की खामोशी…

“विवेक, तुमने एक बार भी पलटकर नहीं देखा…
मैं इंतज़ार करती रही… हर उस दिन… जब तुम्हारा नाम मेरी साँसों में गूंजता था…”

फोन पर मौन की एक लंबी रेखा खिंच गई थी।
कांच जितनी पारदर्शी, पर उतनी ही नुकीली।

नेहा ने धीरे से कहा —
“पापा अब मान गए हैं विवेक…
उन्होंने कहा है, अगर लड़का नौकरी में हो — भले ही छोटी — रिश्ता हो सकता है…”

विवेक ने होंठ भींचते हुए कहा —
“नेहा, पंचायत सहायक की नौकरी को नौकरी नहीं मानते लोग…
और मैं अब भी खुद को नहीं पाल पाता…”

नेहा की आवाज़ में कोई शिकायत नहीं थी —
बल्कि वो सच्चाई थी जो आंखों से नहीं, सीधा दिल से निकलती है —
“मैंने तुम्हें तुम्हारी नौकरी के लिए नहीं चाहा था विवेक…
मैंने तो तुम्हें चाहा था, तुम्हारे होने के लिए…”

विवेक की आँखों से आँसू निकलकर गालों तक पहुंच चुके थे —
बिना शोर किए, बिना रोए…
बस यूँ ही बहते हुए, जैसे कोई बीते हुए पल वापस माँग रहा हो।

उसने धीरे से कहा —
“मैं तुम्हें अपना नाम तो दे सकता हूँ, नेहा…
लेकिन शायद ज़िंदगी नहीं…”

फोन पर दोनों तरफ़ चुप्पी छा गई थी।
एक ऐसी खामोशी, जो शब्दों से ज़्यादा कुछ कह जाती है।
शायद दोनों की रूहें ही बात कर रही थीं —
वो बातें, जो कभी कह नहीं पाए थे।

फोन कटने से ठीक पहले नेहा ने कहा —
“मैं तुम्हें फिर से कॉल करूँगी…
उसी नंबर पर — जिस पर तुमने आखिरी बार ‘बाय’ कहा था।”

विवेक की आवाज़ जैसे किसी पुराने बक्से में रखे खत जैसी फड़फड़ाई —
“मैं आज भी वहीं हूँ नेहा…
वक़्त से पीछे… बस तुम्हारी आवाज़ के इंतज़ार में…”

फोन कट गया।

विवेक की नजर सामने दीवार पर टंगी उस पुरानी तस्वीर पर पड़ी —
नेहा अब भी मुस्कुरा रही थी…
पर इस बार उसकी मुस्कान के पीछे एक सवाल था —
“क्या मोहब्बत सिर्फ चुप रहने से पूरी हो जाती है?”

वो तस्वीर अब फ्रेम में नहीं थी,
वो आँखों के अंदर उतर आई थी —
और शायद वहीं रह गई थी… हमेशा के लिए।

“नेहा की कॉल कोई संयोग नहीं थी —
वो मोहब्बत की आखिरी दस्तक थी,
जिसे विवेक अब भी दरवाज़े तक जाकर खोल नहीं पा रहा था।”

अध्याय 7: पर्दे के पीछे की पंचायत

सुवह के लगभग ग्यारह बजे थे।
पंचायत भवन में आज ग्राम सभा की मासिक बैठक थी।
छत पर पंखा घूँ-घूँ कर रहा था, मगर गर्मी की लहरें किसी लोकल नेता की तरह सब पर हावी थीं।
बरामदे में गाँव के कुछ पुरुष चुपचाप बैठे थे — कोई सिर पर गमछा बाँधे, कोई कुर्सी की मुरमुराहट से ऊबता हुआ।
हॉल के भीतर प्रधान बलबीर सिंह अपनी कुर्सी पर ऐसे जमे थे, जैसे यही विधानसभा हो।
बगल में सचिव रमेश दुबे बैठे थे — हाथ में फाइल और चेहरा तटस्थ।
और थोड़ी दूरी पर विवेक बैठा था — पंचायत सहायक।
उसके हाथों में काग़ज़ों की गठरी थी, और चेहरे पर चिंता की लकीरें।

बातचीत औपचारिक चल रही थी —
पर भीतर कुछ और पक रहा था।

प्रधान बलबीर सिंह ने धीरे से झुककर कहा,
“विवेक! इस बार रमेश के कहने पर इन 12 नामों को आवास लिस्ट में जोड़ दे… सब अपने लोग हैं।”

जैसे ही लिस्ट देखी, विवेक के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
सभी नाम शहर में रहने वालों के थे या फिर पक्के मकान वालों के।
उसने धीमे लेकिन साफ़ स्वर में कहा,
“सर… ये सब अपात्र हैं। नियमों के अनुसार इन्हें शामिल नहीं किया जा सकता।”

बलबीर सिंह का चेहरा लाल पड़ गया।
आँखों में धधकता हुआ रोष उमड़ पड़ा।
“तू पंचायत सहायक है या अफ़सर बन गया है?
बहुत उड़ने लगा है रे!
“बस एक दस्तख़त काफ़ी है…और तेरी नौकरी गई समझ।”

विवेक कुछ नहीं बोला, पर उसकी पीठ पसीने से भीग गई थी।
भीतर एक कंपकंपी थी — न डर की, बल्कि व्यवस्था की निर्ममता को जानने की।

उस रात सचिव का फोन आया।
“देखो विवेक, बात समझो। प्रधान से उलझना बेवकूफी है। सब सिस्टम से समझौता करते हैं। तुम भी कर लो। वरना ये नौकरी भी हाथ से जाएगी।”

विवेक चुप रहा।
काफी देर तक कमरे की दीवारों को घूरता रहा, फिर डायरी खोली और माँ की कही बात याद आई —
“गलत को गलत कहना कभी मत छोड़ना।”

कुछ ही हफ्तों में चीज़ें तेज़ी से बदलीं।

ब्लॉक कार्यालय में विवेक के नाम शिकायत पहुँची — “काम में लापरवाही”
एक नोटिस आया — “कारण बताओ नोटिश”
गाँव में अफवाह फैली — “विवेक रिश्वत लेता है…”

एक-एक कदम जैसे किसी तयशुदा साज़िश का हिस्सा था।
वह घिर चुका था — सत्ता, सिस्टम, और साजिश के त्रिकोण में।

उधर बलबीर सिंह अब भी हँसते थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
गाँव वाले अब आँखें चुराते थे —
और सचिव रमेश दुबे, जो कभी सहयोगी लगता थे, अब अजनबी हो गए थे।

विवेक के पास न कोई नेता था, न पैसे का सहारा।
न कोई जातिगत ढाल, न कोई अधिकारी जो उसका पक्ष ले।

बस एक चीज़ थी — उसका सच, उसका संघर्ष, और उसकी माँ का आशीर्वाद।

उस दिन अकेले बैठकर उसने खुद से कहा —


“जिस व्यवस्था को संवारने की कसम खाई थी,

अब वही मुझे तोड़ने पर आमादा है…

क्या ईमानदारी सच में बस किताबों की कहानी है?”

उसकी आँखें नम थीं, पर उनमें कोई पछतावा नहीं था।
वह डरा हुआ था…
लेकिन टूटा नहीं था।

अध्याय 8: लखनऊ की सुबह और गाँव की आवाज़

सुबह के चार बजे थे।
अलार्म की घड़ी तो बजी नहीं, पर विवेक की आँखें यूँ ही खुल गईं।
जैसे शरीर सो भी जाए, तो भी आत्मा को चैन कहाँ।
उसने कितनी ही रातें ऐसे ही करवटों में गुज़ार दी थीं —
ना नींद थी, ना सुकून…
बस एक अदृश्य लड़ाई चल रही थी — एक अदृश्य सिस्टम के खिलाफ।

आज उसे लखनऊ जाना था।
न्याय की तलाश में, अपने जैसे हजारों पंचायत सहायकों की आवाज़ बनकर।
वो अकेला नहीं था —
प्रदेश भर के कोनों से आए लोग भी वही दर्द लिए थे — अधूरी सच्चाइयों के गवाह।
“हम तनख़्वाह नहीं, इज़्ज़त माँगने आए हैं…”
बस अड्डे की चाय की दुकान पर बैठा विवेक,
हाथ में लिए अपनी नियुक्ति पत्र की प्रति और अनुभव पत्रों को एकटक देख रहा था।
हर काग़ज़ उसकी मेहनत की कहानी कहता था।

पंचायती राज निदेशालय के सामने पहुँचा —
हज़ारों पंचायत सहायकों के बीच।
किसी के हाथ में तख्ती, किसी की आँखों में उम्मीदें, और सभी के सीने में जले हुए सपने।

“हम भी कर्मचारी हैं — मान्यता दो!”

“20 घंटे काम, 8 घंटे की तनख़्वाह भी नहीं!”

“पंचायत सहायक नहीं, पंचायत का मज़दूर बना दिया!”

भीड़ थी — लेकिन अनुशासित।
आवाज़ें थीं — लेकिन सलीकेदार।
कोई नारे लगा रहा था, कोई बस खामोशी में भीग रहा था।

तभी एक पत्रकार आया — युवा, ईमानदार, जिज्ञासु।
विवेक के पास आया और कैमरा ऑन किया।

“आपका नाम?”

“विवेक। गाँव — रामपुरा। पंचायत सहायक।”

“कितने साल से काम कर रहे हैं?”

“चार साल। अभी तक स्थायी नहीं हुआ।”

“आप क्या चाहते हैं?”

विवेक ने सीधे कैमरे में देखा, उसकी आवाज़ धीमी थी पर असरदार —
“बस यही चाहता हूँ कि जब सरकार हमें अफसरों जैसा काम देती है,
तो तनख़्वाह और सम्मान भी वैसा ही दे।
हम गाँव के अफसर हैं… पर जेब के फकीर हैं।
यही है हमारी कहानी — पंचायत सहायक: गाँव का अफसर, जेब का फकीर… एक अधूरी सच्चाई।”

उस वीडियो ने जैसे आग लगा दी।
सोशल मीडिया पर वायरल हुआ —
लोग कहने लगे — “गाँव का लड़का सरकार से टकरा गया।”

अगले दिन, राज्य सचिवालय से बुलावा आया।
पंचायत राज विभाग के निदेशक से कुछ प्रतिनिधियों के साथ विवेक भी मिलने गया।
कमरे में बैठे अधिकारी ने कहा —
“हमने आपकी बातें सुनी हैं, विवेक।
हम प्रस्ताव बनाएँगे। कमेटी गठित होगी।
जो हो सकेगा, किया जाएगा…”

विवेक बाहर आया —
चेहरे पर सुकून नहीं था, पर एक शांति ज़रूर थी।
“शायद बात पहुँची है… शायद नहीं।
लेकिन आज हमने एक शुरुआत की है — और यही सबसे बड़ी जीत है।”

गाँव लौटते वक़्त, बस की खिड़की से बाहर झाँकते हुए,
उसने मोबाइल में नेहा का मैसेज पढ़ा —
“माफ़ करना विवेक, मुझे तुम पर हमेशा गर्व था।
तुम बदल नहीं पाए, क्योंकि तुम झुके नहीं।”

चाँदनी स्टेशन पर लेने आई थी —
“भैया, आज माँ बहुत खुश है।
टीवी में तुम्हारी क्लिप आ रही थी।
सब कह रहे थे — ‘देखो गाँव का लड़का कितना बड़ा हो गया’।”

विवेक मुस्कराया नहीं — बस आंखें थोड़ी भर आईं।
कमरे में पहुंचा तो देखा —
दीवार पर अब भी वही पुराना कैलेंडर टंगा था।
पर तारीख़ बदल चुकी थी।
एक नया दिन… एक नयी शुरुआत।

बैग अब भी कंधे पर था —
पर आज वो बोझ नहीं लग रहा था।
जैसे सालों की मेहनत ने आज उसे कुछ और बना दिया हो —
एक आंदोलन का चेहरा, एक उम्मीद का नाम।

वह अधूरी कहानी अब एक आंदोलन बन चुकी थी।

और डायरी के आखिरी पेज पर विवेक ने लिखा:

“जिसने गाँव के लिए कलम चलाई,
आज उसकी आवाज़ राजधानी तक पहुँची।
तनख़्वाह भले ना बढ़ी हो,
पर समाज की नज़र में अब
‘पंचायत सहायक’ सिर्फ नाम नहीं —
सम्मान है।
और मैं जानता हूँ —
मुश्किलों से निकली हुई सच्चाई,
कभी अधूरी नहीं रहती।
वो धीरे-धीरे ही सही,
सरल बनती है… सत्य बन जाती है।”


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