सुजान भगत – एक नई कथा
लेखक: सतेन्द्र
(प्रेरणा: मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी “सुजान भगत”)
प्रस्तावना:
गाँवों की मिट्टी में एक सोंधी-सी महक होती है। वह महक न केवल खेतों की होती है, बल्कि उन लोगों की भी होती है जो मिट्टी से जन्म लेते हैं और उसी में घुल जाते हैं। ऐसे ही एक गाँव की कहानी है यह, जहाँ धर्म, विश्वास, आडंबर और सच्चाई की टकराहट होती है। यह कहानी है सुजान भगत की—जिसने धर्म को समझा, जिया, और फिर उसे समाज को आईना बनाकर लौटाया।
अध्याय 1: गाँव की सुबह और भगत जी का ध्यान
पूरब से लालिमा फैल रही थी। गांव सिपाहीपुर की मिट्टी की गंध हवा में घुली हुई थी। दूर मंदिर की घंटियाँ सुबह की आरती का संकेत दे रही थीं। गांव के बाहर पीपल के नीचे बैठा एक बूढ़ा आदमी आँखें मूंदे बैठा था। यह थे—सुजान भगत।
सुजान भगत की उम्र कोई सत्तर के पार रही होगी, मगर चेहरा ऐसा जैसे तप से निखरा हुआ। उनका माथा सफेद चंदन से सजा होता, शरीर पर केवल एक खादी की धोती और काँधे पर एक पुराना अंगोछा। गाँव का हर बच्चा उन्हें देखता तो चुप हो जाता, हर वृद्ध उन्हें देखकर हाथ जोड़ लेता। लेकिन जो उन्हें बहुत नज़दीक से जानते थे, वे जानते थे कि उनका धर्म मंदिरों और मूर्तियों में नहीं, बल्कि इंसानियत में है।
अध्याय 2: मंदिर का पाखंड और चौधरी की राजनीति
सिपाहीपुर में एक भव्य मंदिर था, जिसका संचालन करता था चौधरी दयाराम। वह गाँव का सबसे बड़ा ज़मींदार और मंदिर का “प्रमुख” था।
“भगत जी,” एक दिन चौधरी ने कहा, “इस बार रामनवमी के मेले में आपको कथा पढ़नी है। गाँव में आपके नाम का बड़ा असर है। भजन-कीर्तन और आपकी वाणी से गाँव का माहौल धार्मिक हो जाएगा।”
सुजान भगत मुस्कराए। “दयाराम जी, कथा मैं जरूर पढ़ूँगा, लेकिन धर्म का मतलब अगर आपके मेले की चढ़ावा गिनती बन जाए, तो मैं चुप ही रहना पसंद करूँगा।”
चौधरी को यह बात खटक गई। वह चाहता था कि भगत जी उसके कहे अनुसार लोगों को धर्म के नाम पर चंदा देने को प्रेरित करें। उसे लोगों की आस्था से पैसा कमाना था।
अध्याय 3: रमजू की बेटी और भगत जी की परख
गाँव में रमजू नाम का एक गरीब मजदूर था। उसकी बेटी कमला बीमार थी।
एक शाम वह भगत जी के पास आया, आँखों में आँसू लिए, “भगत जी, बिटिया की दवाई के लिए पचास रुपये चाहिए। चौधरी से माँगा, उसने मंदिर का हवाला देकर टाल दिया।”
भगत जी ने अपने गमछे के कोने से बंधा छोटा थैला खोला और बिना कुछ कहे पचास रुपये रमजू को दे दिए।
रमजू काँपती आवाज़ में बोला, “भगत जी, भगवान आपका भला करें।”
“भगवान तो हर इंसान में है रमजू,” भगत जी बोले, “जिस दिन इंसान इंसान की मदद करना बंद कर देगा, उस दिन मंदिर केवल पत्थर रह जाएंगे।”
अध्याय 4: चमत्कार की खोज और सत्य का प्रकाश
एक दिन गाँव में अफवाह फैली कि मंदिर में भगवान की मूर्ति ने आँखें खोली हैं। भीड़ उमड़ पड़ी। ढोल, मंजीरे, और पंडितों की घोषणाएं—”देखो, भगवान प्रकट हुए हैं!”
चौधरी ने इस अफवाह को और फैलाया, ताकि मंदिर में चढ़ावे की बारिश हो जाए। भगत जी मुस्करा रहे थे।
अचानक भगत जी मंच पर चढ़ गए और बोले, “क्या भगवान केवल मूर्तियों में रहते हैं? क्या उन्होंने रमजू की बेटी की चीख नहीं सुनी थी? क्या उन्होंने विधवा मीरा को भूख से तड़पते नहीं देखा?”
भीड़ में सन्नाटा छा गया।
“अगर भगवान की आँखें खुली हैं,” भगत जी बोले, “तो वो आज उस इंसान में दिखेगा जो भूखे को रोटी देगा, बीमार को दवा देगा, और औरत की इज़्ज़त की रक्षा करेगा।”
अध्याय 5: परिवर्तन की शुरुआत
भगत जी की बातें लोगों के दिलों में उतर गईं। अगले दिन गाँव की कई औरतें और किसान मंदिर के सामने इकट्ठे हुए। उन्होंने चढ़ावा मंदिर को न देकर पास के अस्पताल में दवा दिलाने के लिए दान देना शुरू किया।
दयाराम बौखला गया। उसने भगत जी को बदनाम करने की कोशिश की। एक अफवाह उड़ाई गई कि भगत जी नास्तिक हो गए हैं।
लेकिन इस बार गाँव ने साथ दिया। बूढ़े, बच्चे, औरतें सब भगत जी के पास आए।
“अगर भगत जी नास्तिक हैं,” एक महिला ने कहा, “तो हमें भी नास्तिक बना दो, क्योंकि हमारे भगवान ने तो आज तक हमारी सुनवाई नहीं की।”
अध्याय 6: धर्म की नई परिभाषा
एक दिन भगत जी ने पीपल के नीचे सभा बुलाई।
“धर्म का मतलब क्या है? रोज़ पूजा करना, व्रत रखना, चंदा देना? नहीं! धर्म है – सच्चाई बोलना, मेहनत करना, और दूसरों के दुःख को अपना समझना।”
गाँव की हवा बदलने लगी थी। मंदिर अब केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि एक छोटी पाठशाला भी बन गया था।
भगत जी ने वहाँ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उनके अनुसार शिक्षा ही सबसे बड़ा धर्म है।
अध्याय 7: अंतिम दिन और अमरता
एक शाम भगत जी पीपल के नीचे बैठे थे, आँखे मूँदी थीं। हवा शांत थी। पक्षियों की चहचहाहट बंद हो गई थी।
अचानक लोगों ने देखा, भगत जी अब साँस नहीं ले रहे। उनका चेहरा शांत था—जैसे किसी संत ने समाधि ली हो।
पूरा गाँव उमड़ पड़ा। कोई नहीं रोया, क्योंकि भगत जी मरकर भी जिंदा थे। हर दिल में, हर सोच में।
उपसंहार:
आज भी सिपाहीपुर के उस पीपल के नीचे एक पत्थर रखा है, जिस पर लिखा है:
“यहाँ वो बैठा करता था, जो भगवान को इंसान में देखता था।”
यह कहानी भले ही काल्पनिक हो, लेकिन यह एक ऐसी सच्चाई को छूती है, जो हमारे समाज में हमेशा से रही है—धर्म का असली मतलब क्या है?
सुजान भगत जैसे चरित्र हमारे समाज के आईने हैं, जो धर्म को बाहरी लिबास से निकालकर हृदय में स्थापित करते हैं।
(लेखक: सतेन्द्र)
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