ठाकुर का कुआँ

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ठाकुर का कुआँ (आधुनिक संवेदना में एक पुनर्कथा)

लेखक: सतेंद्र

गाँव की सुबह कुछ खास नहीं होती थी, बस वही खेतों की माटी से आती हवा, कहीं दूर मंदिर से आती आरती की धीमी आवाज, और पालतू मवेशियों की रंभाहट। लेकिन उस सुबह रामू की बीवी, गंगी, की आँख जल्दी खुल गई थी। पेट में दर्द नहीं था, नींद भी पूरी थी, पर मन भारी था। गर्मी के उस मौसम में जब कुएँ सूखने लगते हैं, तब गरीब की तकलीफ भी बढ़ जाती है।

गंगी ने टोकरी से टूटी-फूटी बाल्टी उठाई और अपने टूटी चप्पलों को पहनते हुए आँगन से बाहर झाँका। रामू अभी सो रहा था। उसकी आँख के नीचे पुराना फोड़ा फिर से उभर आया था, जो न तो पूरी तरह पकता था और न ही ठीक होता था। हर बार की तरह वो दर्द को आँखों में दबा लेता और कहता, “गाँधीजी को जेल में भी चैन नहीं था, तो हमें क्यों चाहिए?”

गंगी को रामू की बातों से अक्सर हँसी आ जाती थी, लेकिन आज नहीं। वह थकी हुई थी, रोज़ के अपमान और पीड़ा से। गाँव का एक ही सरकारी कुआँ था, ठाकुर साहब का कुआँ। नाम ही था ‘सरकारी’, लेकिन हक़ बस ठाकुरों और बनियों का था। दलितों के लिए उस कुएँ तक जाना भी अपराध था। ठाकुरों के घर के पीछे से बहती एक पतली सी नाली थी, जहाँ से दलितों को पानी लेने की ‘इजाज़त’ थी। लेकिन उस नाली का पानी पीने लायक नहीं होता था।

“आज उस कुएँ से पानी लाऊँगी,” गंगी ने मन में ठान लिया।

रामू ने करवट ली, शायद कुछ बुदबुदाया, पर गंगी ने ध्यान नहीं दिया। उसके पाँव सीधे गाँव के दक्षिण में स्थित उस कुएँ की ओर उठ चले, जहाँ सुबह की पहली पूजा चल रही थी। ठाकुर साहब की बहू, सिर पर पल्ला और हाथ में पूजा की थाली लिए, भगवान से संतान सुख की कामना कर रही थी। उधर, गंगी, भगवान से इंसान जैसा व्यवहार पाने की उम्मीद लिए खड़ी थी।

कुएँ के पास तक पहुँचना आसान नहीं था। गंगी एक झाड़ी के पीछे छिप गई। उसने देखा – एक लड़का रस्सी में बाल्टी बाँधकर पानी निकाल रहा था। वह ठाकुर का बेटा होगा, गंगी ने सोचा। उसने आँखें बंद कर लीं और खुद से कहा – “भगवान, आज पानी मिल जाए, कल से फिर वही गंदा पानी पी लूँगी। लेकिन आज रामू की दवा बनानी है।”

गर्मी अपने चरम पर थी। खेतों की मिट्टी तप रही थी। झाड़ियों के पीछे छिपी गंगी का माथा पसीने से भीग चुका था। जैसे ही आसपास कोई नहीं दिखा, वह जल्दी से कुएँ की ओर लपकी, रस्सी पकड़ी और बाल्टी को नीचे सरकाने लगी।

लेकिन तभी – “कौन है वहाँ?”

गंगी की साँस अटक गई। एक लड़का भागता हुआ आया और चिल्लाया, “ठाकुर जी! कोई नीच कुएँ से पानी भर रहा है!”

गाँव में मानो विस्फोट हो गया हो। कुछ ही पलों में चार-पाँच ठाकुर लाठी लेकर आए। गंगी को वहीं रंगे हाथों पकड़ लिया गया।

“साली! हमारे कुएँ को अपवित्र कर दिया?” एक बुज़ुर्ग ठाकुर ने उसके बाल पकड़ते हुए कहा।

“हमारे देवी-देवता का अपमान किया है। अब तुझे गाँव की पंचायत में सज़ा मिलेगी!” एक अन्य चिल्लाया।

गंगी के मुँह से कोई आवाज नहीं निकली। आँखें भर आई थीं, पर आँसू नहीं गिरे। शायद भीतर ही भीतर जल गए थे।

पंचायत बैठी। गंगी को बीच में खड़ा किया गया। चारों ओर तमाशबीनों की भीड़ थी। ठाकुरों ने एक स्वर में कहा, “इसने कुएँ को अपवित्र किया है, इसे गाँव से निकाल देना चाहिए।”

लेकिन उसी भीड़ में एक आवाज गूँजी – “क्या इंसान की प्यास अपवित्र होती है?”

सब चौंक गए। बोलने वाला था – गाँव का नया स्कूल मास्टर, कृष्णकांत। ब्राह्मण जाति का था, पर विचारों से थोड़ा अलग। उसने कहा, “आज अगर राम को शबरी के झूठे बेर पवित्र लगे थे, तो गंगी का पानी लेना अपवित्र कैसे हो गया?”

ठाकुरों ने घूरा। “मास्टर जी, आप नई-नई पढ़ाई की बातें मत कीजिए। ये हमारी परंपरा है।”

कृष्णकांत मुस्कुराया, “परंपरा अगर अन्याय बन जाए, तो उसे तोड़ना पड़ता है। गांधीजी ने भी तो यही कहा था।”

पंचायत गूँगी हो गई। एक बूढ़े ठाकुर ने कुछ सोचकर कहा, “ठीक है, गंगी पर जुर्माना लगाया जाए। पाँच रुपया और कुएँ की सफाई करवानी होगी।”

गंगी के पास पाँच पैसे भी नहीं थे। भीड़ तितर-बितर हो गई। रामू को जब यह सब पता चला, वह चुप रहा। उसका फोड़ा अब फूट चुका था, पीड़ा में लथपथ, लेकिन वह गंगी से कुछ नहीं बोला। उसने बस उसके पैर दबाते हुए कहा – “तूने हिम्मत दिखाई गंगी। तेरे कारण शायद हमारे बच्चों को एक दिन इज्ज़त से पानी मिल सकेगा।”

गंगी की आँखों में अबकी बार आँसू थे – सच्चे, खरे, गरम आँसू। और उनके पीछे एक चुप आशा।


समाप्त


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