नमक का दारोग़ा

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प्रस्तावना

समय था अंग्रेज़ी शासन का। भारत के लोगों पर हर तरफ से ज़ुल्म ढाए जा रहे थे। ज़मीन से लेकर ज़ुबान तक, हर चीज़ पर नियंत्रण था। और सबसे ज्यादा ज़ुल्म होता था – नमक पर। नमक जो जीवन के लिए जरूरी है, उसे गरीबों से छीनकर कानून बना दिए गए थे कि कोई आम आदमी नमक नहीं बना सकता। उसे केवल सरकार से ही खरीदना पड़ेगा।

इन्हीं दिनों में एक साधारण युवक था – मुंशी वंशीधर। ईमानदार, शिक्षित और आत्मसम्मान से भरा हुआ।

यह कहानी उसी की है – एक साधारण से इंसान की, जो जब “नमक का दारोगा” बना, तो पूरे तंत्र की नींव हिला दी।


पहला भाग – वंशीधर का चयन

मुंशी वंशीधर एक गरीब ब्राह्मण परिवार से थे। पिता जी संस्कृत के विद्वान थे, पूजा-पाठ कर गुज़ारा करते थे। वंशीधर ने अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी और सरकारी नौकरी की तलाश में थे। बहुत प्रयासों के बाद उन्हें नमक विभाग में दारोगा की नौकरी मिली।

यह नौकरी भले ही छोटी लगती हो, लेकिन उस समय इसकी बहुत ताक़त थी। नमक तस्करी रोकने की जिम्मेदारी इसी विभाग की होती थी। लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई थी कि इस विभाग में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार होता था।

वंशीधर के पिता बहुत खुश नहीं थे। वे सोचते थे कि ईमानदारी से इतनी सख्त नौकरी निभा पाना मुश्किल होगा। लेकिन वंशीधर ने उन्हें भरोसा दिलाया –

“पिताजी, ईमान की कमाई भले कम हो, लेकिन आत्मा को सुकून देती है।”


दूसरा भाग – पहला कार्य

वंशीधर ने पद संभालते ही अपने काम को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। दिन-रात इलाके में गश्त करते, संदिग्ध व्यक्तियों पर नज़र रखते और विभाग की निगरानी करते। लोग हैरान थे – क्योंकि पहले जो दारोगा आते थे, वे रिश्वत लेकर तस्करों को छोड़ देते थे। लेकिन ये नया दारोगा तो बिलकुल अलग निकला!

धीरे-धीरे इलाके के तस्करों में डर बैठने लगा। नमक की अवैध बिक्री में भारी गिरावट आने लगी।


तीसरा भाग – मुख्य घटना

एक रात वंशीधर को खबर मिली कि इलाके के सबसे प्रभावशाली ज़मींदार राय साहब – जिनका नाम था राय बहराम सिंह, अवैध रूप से नमक ले जा रहे हैं। यह खबर चौकाने वाली थी, क्योंकि राय साहब का इलाके में बहुत दबदबा था। वे कई अफसरों को पैसे खिलाते थे, और ऊँचे ओहदे वालों से उनके सीधे संबंध थे।

वंशीधर के साथी डर गए। बोले:

“सर, यह उनका काम नहीं है, वे तो बड़े आदमी हैं। कोई और होगा।”

लेकिन वंशीधर अडिग थे। उन्होंने कहा:

“कानून सबके लिए बराबर होता है, चाहे वो राजा हो या रंक।”


चौथा भाग – ज़मींदार की गिरफ्तारी

वंशीधर ने उसी रात छापा मारा। काफिले को रोका गया। बैलगाड़ियों की तलाशी ली गई और सचमुच उनमें अवैध नमक पाया गया।

सामान जब्त किया गया और राय बहराम सिंह को हिरासत में ले लिया गया।

पूरा इलाका दंग रह गया। ऐसा काम पहले किसी ने नहीं किया था। एक दारोगा ने इतने बड़े ज़मींदार को गिरफ्तार कर लिया!


पाँचवाँ भाग – रिश्वत और लालच

अगले दिन राय साहब के आदमी वंशीधर के पास पहुँचे। उन्होंने कहा:

“राय साहब आपको पाँच हज़ार रुपये देने को तैयार हैं। बस ये केस यहीं बंद कर दें।”

पाँच हज़ार उस जमाने में बहुत बड़ी रकम थी। वंशीधर के पिता जी की ज़िंदगी भर की कमाई भी उतनी नहीं थी।

लेकिन वंशीधर ने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा:

“मैं कानून के लिए काम करता हूँ, अपनी जेब के लिए नहीं।”


छठा भाग – राजनीतिक दबाव

अब बात सिर्फ एक ज़मींदार की नहीं रही थी। सरकार के उच्च अधिकारियों को राय साहब से संदेश मिलने लगे। जल्द ही वंशीधर को सरकारी दफ्तर बुलाया गया। उन्हें झूठे आरोपों में फँसाने की कोशिश की गई – उन्हें कहा गया कि उन्होंने राय साहब का अपमान किया है, बिना जांच के कार्यवाही की है।

लेकिन जब सारे दस्तावेज़, गवाह और नमक की ज़ब्ती देखी गई, तो वंशीधर की कार्रवाई बिल्कुल सही पाई गई।

अब सरकार के पास दो रास्ते थे – या तो वे ईमानदार अफसर का सम्मान करें, या उसे दबा दें।


सातवाँ भाग – न्याय की जीत

अंत में सरकार को झुकना पड़ा। राय साहब पर मुकदमा चला और उन्हें दोषी पाया गया। वंशीधर को ईमानदारी के लिए पुरस्कार दिया गया – उनका प्रमोशन हुआ और वे बड़े पद पर आसीन किए गए।

यह भारत के इतिहास में पहली बार था कि एक ज़मींदार जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को एक सामान्य अफसर ने कानून के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया।


अंतिम भाग – वंशीधर की आत्मकथा

अब वंशीधर एक ऊँचे पद पर थे, लेकिन उन्होंने कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया।

कभी वे गाँव लौटते, तो लोग उन्हें नमस्कार करते। उनके पिता की आँखों में गर्व की चमक होती। उन्होंने कहा:

“बेटा, आज समझ में आया कि ईमानदारी केवल गरीबी की निशानी नहीं है, बल्कि आत्मबल की पहचान है।”

वंशीधर ने मुस्कुरा कर कहा:

“पिताजी, मैंने सिर्फ इतना किया कि अपने अंदर के इंसान को कभी मरने नहीं दिया।”


लेखक की टिप्पणी – सतेन्द्र द्वारा

मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी सिर्फ एक दारोगा की नहीं है – यह हर उस इंसान की कहानी है जो ईमानदारी के रास्ते पर चलता है, भले ही रास्ता कठिन हो। आज की दुनिया में जब हर कोई शॉर्टकट चाहता है, यह कहानी हमें बताती है कि सच का रास्ता भले अकेला हो, लेकिन उसका अंत सच्ची जीत होता है।

आज जब हम सामाजिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार, पक्षपात और अन्याय देखते हैं, तो ज़रूरत है कि हर जगह एक “वंशीधर” खड़ा हो – जो न डरे, न झुके, और न बिके।


समापन

“नमक का दारोगा” न सिर्फ एक कालजयी कहानी है, बल्कि यह भारतीय साहित्य में ईमानदारी की मिसाल है। इसकी आत्मा आज भी जीवित है, और हमेशा रहेगी – जब तक इंसानियत है।

लेखक: सतेन्द्र


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